एक दिन चुरकी का मन अपने
भाई से मिलने का हुआ । उसने अपने बच्चे मुरकी की देखभाल में रख दिए और भाई के गाँव
की ओर निकल पड़ी ।
चलते-चलते उसे एक बेर का
पेड़ मिला । बेर के पेड़ ने चुरकी को पुकारा पूछा; “कहाँ जा रही हो ?” चुरकी
बोली, “भैया के पास।” पेड़ बोला,
“मेरा एक काम कर दो। जहाँ तक मेरी छाया पड़ती है, उतनी जगह को झाड़-बुहारकर लीप- पोंत दो। जब तुम लौटोगी तो मैं मीठे-मीठे
बेर वहाँ टपका दूँगा। तुम अपने बच्चों के लिए ले जाना।” चुरकी ने यह काम कर दिया और आगे बढ़ी।
चलते-चलते उसे एक गोठान
मिला जिसमें सुरही गायें थी। एक गाय ने चुरकी से पूछा, “कहाँ जा रही हो ?” चुरकी बोली, "भैया के पास। ” गाय ने कहा, "हमारे इस गोठान को साफ कर दो। लीप
पोत दो। वापिस आते समय एक दोहनी लेती आना। उसे हम दूध से भर देंगी। वह तुम अपने
बच्चों के लिए ले जाना।” चुरकी ने चुटकी बजाते यह कर
दिया और आगे बढ़ी ।
आगे चल कर उसे एक मिट्टी
का टीला मिला। उसमें से आवाज आई,
"क्यों बहन ! कहाँ जा रही हो ?” चुरकी को बड़ा अचरज हुआ कि यह किसकी आवाज है। वह बोली, "मैं भैया के पास जा रही हूँ, पर तुम कौन हो ? यहाँ तो कोई भी दिखाई नहीं देता।" टीला बोला, मैं मिट्टी का टीला बोल रहा हूँ। तुम मेरे आसपास की जमीन साफ-सुथरी कर दो।
वापसी में मैं तुम्हारी मजदूरी चुकता कर दूंगा।” चुरकी
ने फौरन सब कर दिया और आगे बढ़ी।
अब वह अपने भैया के गाँव
पहुँच गई। भैया उसे गाँव की मेंड पर खेत में ही मिल गया। वह उससे बड़े प्रेम से
मिला। उसने सुख-दुख की बातें की। अपने साथ लाया हुआ कलेवा उसे खिलाया। पर जब भाभी
से मिलने घर पहुँची, तो
उसका व्यवहार उसके साथ रूखा रहा पर खैर! चुरकी ने दूसरे दिन भाभी- भैया से विदा
ली। उसने भाभी से एक दोहनी माँग ली थी। भैया ने उससे चने का साग तोड़ने के लिए
कहा। उसने तोड़ लिया। उसी को लेकर वह घर की ओर चल पड़ी।
वापस आते हुए सबसे पहले
उसे मिट्टी का टीला मिला, जिस
पर रूपयों का ढेर लगा था। यह उसकी मजदूरी थी। उसने रुपए बटोर कर अपनी टोकरी में रख
लिए और चने के साग से ढक दिए। थोड़ी देर बाद गोठान आ गया। वहाँ गाय ने उसकी दोहनी
दूध से भर दी। गायों को प्रणाम कर वह आगे चल पड़ी।
फिर उसे बेर का वृक्ष
मिला। पेड़ के नीचे पके, मीठे
बेरों का ढेर लगा था। कुछ बेर उसने अपने आँचल में बाँधे और पेड़ को शीश नवाकर आगे
बढ़ी।
घर पहुँचने पर मुरकी ने
उसके पास जब इतनी चीजें देखीं तो उसने समझा कि ये सब भैया ने उसे बिदाई के रूप में
दी होंगी। उसे लालच हो आया। उसने सोचा कि उसे भी भैया के यहाँ जाना चाहिए। दूसरे
दिन वह भी अपने भाई के घर के लिए निकल पड़ी।
चलते-चलते उसे भी पहले
बेर का वृक्ष मिला। पेड़ ने उससे वही बात कही, जो चुरकी से कही थी, परंतु मुरकी घमंडिन थी। उसने साफ मना कर दिया और आगे बढ़ गई।
आगे बढ़ने पर उसे गोठान
मिला। वहाँ की गायों ने भी उससे सफाई कर देने के लिए कहा। वह उनपर चिढ़ गई। मना
करके वह आगे बढ़ गई। आगे उसे मिट्टी का टीला मिला। टीले ने भी उससे वही बात कही, जो चुरकी से कही थी। मुरकी
चिढ़ गई। उसने कहा, "क्या मैं गरीब हूँ. जो मजदूरी लूँगी ? मुझे मेरे भाई से बहुत रुपए मिल जाएँगे।" इस प्रकार सबका अपमान करके
वह आगे बढ़ी।
गाँव की मेंड पर खेत में
ही भाई से उसकी भेंट हो गई। भाई प्रेम से मिला। फिर घर पहुँचकर भाभी से मिली। भाभी
का व्यवहार भी ठीक ही रहा। दूसरे दिन उसने भैया-भाभी से बिदा माँगी। भाभी ने बिदाई
कर दी पर भेंट में कुछ नहीं दिया। खेत में भाई से मिली। भाई ने चने का साग तोड़ने
को कहा । थोड़ा-सा साग लेकर वह चल पड़ी। वह मन ही मन बहुत दुखी हुई कि भैया-भाभी ने
चुरकी को तो कितनी सारी विदाई दी थी, मुझे कुछ नहीं दिया।
लौटते समय रास्ते में
पुनः मिट्टी का टीला पड़ा। जैसे ही वह टीले के पास पहुंची तो वहाँ तीन-चार काले
सर्प निकले और मुरकी की ओर बढ़े। घबराकर वह भागी। भागते-भागते वह गोठान तक पहुँची।
वहाँ आराम करने के लिए थोड़ी देर रुकी तो वहाँ की सुरही गाएँ उसे मारने के लिए
दौड़ीं। बेचारी मुरकी वहाँ से भी जान बचाकर भागी। किसी तरह गिरते-पड़ते वह बेर के
पेड़ के पास पहुँची तो वहाँ बेर के काँटों का जाल बिछा हुआ था। काँटों से मुरकी के
हाथ पैर छिद गए। उसमें उलझकर उसके वस्त्र फट गए।
वह इस तरह घायल होकर थकी माँदी किसी तरह चुरकी के घर तक पहुँची। चुरकी को उसकी हालत देखकर बहुत कष्ट हुआ। उसने सहानुभूति के साथ उसकी दयनीय दशा का कारण पूछा। मुरकी ने भैया-भाभी के पक्षपात और उनकी कंजूसी का दुखड़ा रोया। तब चुरकी ने उसे बताया कि भैया ने तो उसे कुछ नहीं दिया था। उसने यह भी पूछा, “रास्ते में तुमसे किसी ने कुछ करने को कहा था क्या ?” इसपर मुरकी ने उसे सारी बातें बताई। चुरकी सब कुछ समझ गई। वह बोली, “बहन ! तुमको बहुत घमंड था। इसलिए यह हालत हुई। संसार में घमंड किसी का भी नहीं टिकता। घमंड ही आदमी को नीचे गिराता है। "
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