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पाँचवा पैर (उत्तराखण्ड की लोककथाएँ)

हिमालय की गोद में बसा था एक गाँव। शिकारी बहुत थे वहाँ। लेकिन हिम्मतवाले बस एक-दो ही थे। एक दिन न जाने किसने चट्टान पर भेड़िए का चित्र बना दिया। थोड़ी देर बाद कोई दसरा आदमी आया। उसने पाँच पैर, तीन आँखें और चार कान बना दिए। तीसरा आदमी उधर से गुजरा, तो उसने उसके सिर पर दो सींग निकाल दिए।

कुछ महिलाएँ लकड़ियाँ बीनती हुई आई। चित्र को देखते ही डर से काँप उठीं। उन्होंने गाँव में लौटकर लोगों को बताया- "जंगल में एक भयंकर जानवर आया है उसके पाँच पैर हैं, तीन आँखें हैं और चार कान।" अफवाह एक गाँव से दूसरे गाँव और फिर सभी जगह फैल गई। लोग डर के मारे घर से बाहर नहीं निकलते थे।

एक दिन एक लोमड़ी उस तरफ गई। चित्र को देखा, तो खूब हँसी। सामने ही एक बूढ़ा भेड़िया बैठा था। बोला- क्यों बहन, आज इतनी खुश क्यों हो? क्या कोई तगड़ा शिकार मिल गया है?"

लोमड़ी बोली- "हाँ, भैया! अब सबसे बड़ा शिकार यहाँ का आदमी होगा। यह देखो, एक अजीब भेड़िए की शक्ल। भला, दुनिया में ऐसा भी कोई पशु होता है! लेकिन आदमी बुद्ध होते हैं, इसीलिए ऐसी कल्पना कर डाली।"

"आदमी होता ही डरपोक है। एक काम करोगे। तम्हारे, दादा की खाल अभी सुरक्षित है तुम्हारे पास। उसे तुम मुझे दे दो। मैं विचित्र भेड़िया बनकर शिकार किया करूँगी।" - चालाक लोमड़ी ने प्रस्ताव रखा।

भेड़िए ने कहा- "मैं तो सचमुच में भेड़िया हूँ, फिर मैं ही शिकार क्यों न करूँ?"

लोमड़ी ने कहा- "तुम पाँच पैर, तीन आँखें तथा चार कान वाले भेड़िए नहीं बन सकते। यह बात तो मैं ही कर सकती हैं। इसलिए जो मैं कहूँ, करते जाओ।"

भेड़िया अनमना-सा रहा। उसकी समझ में पूरी बात नहीं आई। उसने चुपचाप अपने दादा की खाल लोमड़ी को दे दी। बोला "बहन, आधा हिस्सा तो मुझे दिया करोगी न?"

"हाँ, हाँ! क्यों नहीं।" लोमड़ी उसे तसल्ली देकर चली गई।

अगले दिन लोमड़ी ने बूढ़े भेड़िए की मदद से खाल पहनी। उसने अपने जबड़े में बाँस की दो खपच्चियाँ लगा लीं। दो कानों से बाँध लीं। माथे के बीच में एक काला दाग बनाया, ताकि वह तीसरी आँख दिखाई पड़े।

"पर पाँचवाँ पैर कहाँ से लाओगी बहन?" भेड़िए ने प्रश्न किया।

"तू तो बुद्ध का बुद्ध ही रहा। देख, अभी बताती हूँ।" - इतना कहकर लोमड़ी ने अपनी पूँछ नीचे लटका ली और बोली "यह देख, पाँचवाँ पैर।"

एक दिन कोई शिकारी उधर से गुजरा। वह एक वीर पिता का डरपोक बेटा था। लोगों को दिखाने के लिए ही बंदूक लटकाए रहता था। उसने लोमड़ी को विचित्र भेड़िए के रूप में देखा, तो डर गया। बंदूक हाथ से छूट गई। पेट के बल सरकने लगा। लोमड़ी उसकी हालत देखकर हँसने लगी। शिकारी किसी तरह गिरता पड़ता अपने घर पहुँचा। बिस्तर में मुँह छिपाकर लेट गया।

लोमड़ी के हाथ बंदूक लग गई थी। अब वह उसे बड़े रौब से लेकर घूमती और जंगल के सब पशुओं पर धौंस जमाती।

दिन बीतते गए। लोग डर के मारे घर से बाहर कम निकलते थे। शिकारी तो अधमरा-सा ही हो गया था। एक दिन उसने सोचा क्यों न पास के गाँव में जाकर वहाँ के बूढ़े शिकारी से सलाह ली जाए। वह बूढ़े शिकारी के घर गया। सारी कहानी सुनाई। बूढ़ा शिकारी ठहाका मारकर हँसा। बोला- "अरे मूर्ख, भला ऐसा जानवर भी होता है कहीं?"

"नहीं, काका। आपकी सौगंध खाकर कहता हूँ। मैंने वह जानवर अपनी आँखों से देखा है। उसने मेरी बंदूक भी छीन ली थी।"

"हाँ, जिस शिकारी की बंदूक खो जाती है, वह अधमरा तो अपने आप ही हो जाता है। लेकिन तुम्हें भ्रम हो गया।" बूढ़ा बोला।

शिकारी निराश हो, अपने घर चला आया। उधर लोमड़ी के पास गोलियाँ खत्म हो गई थीं। एक दिन वह शिकारी के घर पहुंची। बोली- "गोलियाँ दे दो। मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूँगी। वरना......।" शिकारी के होश उड़ गए। वह रजाई में दुबक गया।

लोमड़ी गोलियाँ लेकर बाहर निकली, तो खिलखिलाकर हँसी। शिकारी की बुद्धि पर तरस आ रहा था उसे। जाते-जाते वह उसकी मुर्गियाँ भी उड़ा लाई थी। लोमड़ी गोलियाँ तो ले आई, लेकिन उसे बंदूक में कैसे भरे... यही समस्या थी। भेड़िए ने भी कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली।

इस बार लोमड़ी ने बूढ़े भेड़िए को शिकारी के घर भेजा। वह उसे घसीटता हुआ लोमड़ी के पास ले आया। भेड़िया बोला "जंगल के राजा का हुक्म है, तुरंत बंदूक में गोलियाँ भरना सिखाओ। नहीं तो हम तुम्हारा शिकार करेंगे।" शिकारी फिर गिड़गिड़ाने लगा।

तभी धाँय-धाँय की आवाज आई। लोमड़ी और भेड़िया चित्त हो गए। शिकारी भी बेहोश हो गया। तभी बूढ़ा शिकारी आया। उसे झकझोरते हुए बोला- "उठ, डरपोक, यह देखा पाँच पैर, चार कान, तीन आँखें और लंबे सींगोंवाले भेड़िए की खाल।" युवक पागल-सा देख रहा था। बूढ़े शिकारी ने फिर कहा- "शिकारी जब डर जाता है, तो समझो वह मर गया।"

अब बात शिकारी की समझ में आ गई थी।

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