एक
बार रात के समय लालबुझक्कड़ के गाँव में से होकर एक हाथी निकला। गाँव के सब लोग सो
रहे थे। किसी को पता नहीं चला कि हाथी कब निकल गया। गाँव के रास्तों में धूल बहुत
होती है। उस धूल पर हाथी के पैरों के बड़े-बड़े निशान बन गए।
सबेरा
हुआ, सब लोग जागे। कुछ ने वे गोल निशान रास्ते में देखे। बहुत सोचने पर भी वे
यह बात न समझ सके कि ये किस चीज के निशान हैं क्योंकि उन्होंने कभी भी अपने जीवन में
हाथी देखा नहीं था इसलिए पैरों के निशान देखकर वे कुछ समझ न सके। इसलिए सबने
लालबुझक्कड़जी को वे निशान दिखाए। गोल-गोल, बड़े निशान
लालबुझक्कड़जी ने देखे। फिर वे सोचकर कविता में बोले -
"लालबुझक्कड़
बूझ के और न बूझो कोय।
पैर
में चक्की बाँध के हिरना कूदो होय।।"
इसका
अर्थ है कि लालबुझक्कड़ से प्रश्न पूछकर और किसी से न पूछना । अपने पैरों में
चक्की बाँधकर कोई हिरन कूदा होगा, जिसके ये निशान हैं।
ऐसी
थी लालबुझक्कड़जी की सूझबूझ !
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