सारस तेज आवाज करता उठा। सारी घाटी गूंजने लगी। सारस क्या था, पूरा शेर जैसा आकार हो गया था। उसका शरीर भी अजीब और आवाज़ ऐसी, से शेर की दहाड़ हो। गाँव के बच्चे उसे देखकर डर रहे थे। वह जंगल से गुजरा, तो दूर पेड़ पर कोयल बैठी थी। उसने सारस को पहचान लिया। बोली- "क्यों रे सारस, आज होश खो बैठा है क्या? कल तक मुझसे राम-राम किए बिना नहीं जाता था। आज बात भी नहीं कर रहा है। बड़ा घमंडी बन गया है तू?"
सारस दो पल के लिए रुका। फिर बोला
"देखती नहीं। अब मैं पहले जैसा नहीं रहा। बाबा ने वरदान दिया था इसीलिए शेर
जैसा बन गया हूँ। अब तुम्हारे साथ नहीं रह सकता।"
उस जंगल के दूसरे पक्षियों ने भी उसे बुलाया।
अपने साथ कुछ पल रहने को कहा। सारस सभी की बात अनसुनी करके उड़ चला। परी लोक अभी
तीन मील दूर था। अंगारों की बारिश होने लगी। एक अंगारा सारस की बाई आँख में लगा और
एक पंख पर। उसकी बाई आँख फट गई। एक पंख भी चला गया। परी देश की महारानी दूर से ही
सब देख रही थी। महारानी की अंगरक्षिका
परी बोली- "देखो न, महारानी।
यह सारस भी परी लोक घूमना चाहता है। यह मुँह और मसूर की दाल।"
हरे पंखों वाली परी बोली- "हम इसका
कचूमर निकाल देंगी। यहाँ नहीं घुसने देंगी।"
महारानी ने कहा- "घबराओं नहीं। इसे
यहाँ तक आने ही नहीं दूँगी। दूर से इसे शिला बना देती हूँ।" महारानी ने एक
तिनका सारस की ओर फेंका। वह तुरंत शिला बन गया।
सारस का एक अजगर दोस्त था। बाबा के वरदान से आज उसके भी पंख लग गए थे। वह भी आसमान में उड़ने लगा। उसे उड़ता देख, पशु-पक्षी भय से काँपने लगे। भला, ऐसा कभी हो सकता है। अजगर जो ढंग से चल फिर भी न सके हवा में उड़ता फिरे।
अजगर उड़कर पर्वत की एक चोटी से दूसरी
चोटी पर छलाँगें मारने लगा। पल में यहाँ, पल में वहाँ पहुँच जाता। उसके
सिर पर मणि भी थी। उसकी रोशनी से सारा जंगल जगमगाने लगा था।
अजगर घमंड में फूला था। अकड़ में इधर-उधर
घूम रहा था। उसे देख,
एक कोबरा बोला - "अजगर भाई, आज कहाँ का
धावा है? बड़ी अकड़ दिखा रहे हो? इतना
रोब-दाब तो कभी नहीं देखा?"
कोबरा पुकारता रहा। वह बिना उत्तर दिए, हवा
में उड़ गया। वह भी परी लोक देखने को बेचैन हो गया था। वह परी लोक के पास पहुँच भी
न पाया, तभी नौरंगी परी ने दूर से उसे देख लिया। वह अपनी
सहेली से बोली- "मैं इसे अभी मजा चखाती हैं। मेरे नागपाश से बचकर कहाँ जाएगा?"
इतने में महारानी आ गई। वह बोली- "नौरंगी, तुम अपना नागपाश सम्भाल कर रखो। मैं इसको अभी शिला बना देती हैं।" और
अजगर भी तुरंत शिला बन गया।
सारस और अजगर जिस जंगल में रहते थे, वहीं
एक आदिवासी का डेरा था। लोगों का विश्वास था कि उसकी पत्नी डायन है। वह रात को
अपनी चारपाई पर झाडू रख अपना रूप बदलकर चली जाती थी। रूप बदलने में उसका जवाब नहीं
था। कभी मक्खी बनती कभी भेड़िया, तो कभी कुछ और। इसीलिए वह ‘रुपहली
डायन’ के नाम से मशहूर थी। जंगल में जाकर नाचती-गाती। वहीं उसे सारस और अजगर भी
मिल जाते थे।
उस रात भी वह जंगल में पहुंची। उसे न
सारस मिला और न ही अजगर। एक चूहे ने उसे सारा किस्सा बता दिया। सुनकर वह गुस्से से
भर गई। उसने कहा - "आज मैं परी लोक को तहस-नहस कर दूँगी। देखती हूँ, वहाँ
की परियाँ कितनी बलवान हैं।" वह क्रोध से आग बबूला हो गई। परी लोक की तरफ चल
दी। वह दो मील ही चली थी कि बाज बन गई। चार मील चली, तो आंधी
बन गई और फिर मूसलाधार बारिश।
परियों ने देखा, एक
डायन परी लोक में आ रही है। वे आश्चर्य में पड़ गई। कभी सोचा भी नहीं था कि डायन
यहाँ आ सकती है। डायन को रास्ते में दो मेमने मिले। उन्होंने कहा- "मौसी,
आज परी लोक की पूजा करोगी क्या? तुम्हारा काम
तो लोगों को खाना है। फिर आज पूजा की क्या जरूरत पड़ गई?" डायन ने आव देखा न ताव। दोनों की गर्दन मरोड़ दी।
अब परी लोक एक मील रह गया था। सुरसा की
तरह उसका मुँह फैलता जा रहा था। उसके मुँह में ज्वालामुखी-सा धधक रहा था। परियाँ
भी उसे देख,
घबरा उठी थीं। वे महारानी के पास गईं। महारानी ने कहा- "घबराओं
नहीं, मैं इसका घमंड अभी चूर करती हूँ।" महारानी ने
अपने सुनहरे पंख लगाए। उड़ चली डायन की ओर। डायन उसे अपनी ओर आती देख क्रोध से
बड़बड़ाने लगी। महारानी अपने साथ शांति अस्त्र लाई थी। उसने अस्त्र छोड़ दिया।
डायन जहाँ थी, वहीं रुक गई।
"अरी, ओ
डायन। लौट जा वापस। बेकार हमसे युद्ध का खतरा मोल न ले। देख, तेरे साथियों का क्या हुआ। हम नहीं चाहते कि तेरा भी वही हाल हो।"-
महारानी ने चेतावनी दी। डायन का शरीर तो जड़ हो गया था, किंतु
मुँह बंद न हुआ। वह बोली- "तू मेरे दोनों साथियों को फिर वैसा ही बना दे,
तो जाऊँ। नहीं तो तेरे परी लोक को तहस-नहस कर दूंगी।" महारानी
ने बहुत समझाया। पर डायन तो डायन थी। मुँह से विष उगलती रही। अनाप-शनाप बोलती रही।
हारकर महारानी बोली- "तुझे इतना ही प्यार है अपने मित्रों से, तो जा, पेड़ बनकर उनके बीच खड़ी हो जा। तपती धूप में वे दोनों शिलाएँ तेरी छाया पाकर गर्म नहीं होंगी।" कहकर महारानी ने फिर एक तिनका फेंका। दोनों शिलाओं के बीच एक पेड़ खड़ा हो गया। सुनते हैं, आज भी वह डायन पेड़ बनी, परी लोक में खड़ी है।
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