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पंख और तीर (अरूणाचल प्रदेश की लोककथा)

अरुणाचल प्रदेश में घने जंगल हैं। वर्षा भी खूब होती है। इन जंगलों में बड़े खूंखार हाथी पाए जाते हैं। बहुत पुराने जमाने की बात है। एक साल खूब वर्षा हुई। जंगल में साँप, बिच्छ व दूसरे जहरीले जीव पैदा हो गए। कँटीली झाड़ियों से जंगल पट गया। रास्ते बंद हो गए। ऐसी हालत में विशालकाय हाथियों को घूमने-फिरने में कठिनाई होने लगी। एक दिन सारे हाथी मिलकर ब्रह्माजी के पास गए। उन्होंने अपनी मुसीबत बताई और ब्रह्माजी से प्रार्थना की- "भगवन्, हम आपके बनाए जीव हैं। आप हमारी रक्षा करें। पक्षियों की तरह हमें पंख लगा दें, ताकि हम उड़कर इधर से उधर आ-जा सकें।"

ब्रह्माजी के दरबारियों ने यह सुना तो खिलखिलाकर हँस पड़े- "इतना भारी-भरकम शरीर और पक्षियों वाले पंख।" उन्होंने ब्रह्माजी से कहा- "प्रभु, हाथियों की बात मत मानिए। बड़ा अनर्थ हो जाएगा। अगर कोई हाथी उड़कर किसी छप्पर पर बैठ गया, तो न जाने कितनी जानें चली जाएँगी।"

हाथियों का बुरा हाल था। एक बूढ़ा हाथी उठा और तेजी से अपनी सूंड घुमाकर बोला- "महाराज, ये सब हमारी जान लेने पर तुले हैं। धरती के जहरीले जीवों ने हमारी नाक में दम कर रखा है। आप अगर हमें पंख नहीं देंगे, तो हमारी सारी की सारी नस्ल ही खत्म हो जाएगी।" और सारे हाथी भूख हड़ताल पर बैठ गए।

ब्रह्माजी का दिल पसीज गया। उन्होंने तुरंत आदेश दिया- "इस प्रदेश के सभी हाथियों के पंख लगा दिए जाएँ।" देखते-देखते हाथियों के पंख उग आए। अब क्या था! हाथी आकाश में उड़ने लगे। जब जी में आता, किसी पेड़ के ऊपर जा बैठते। जब मन करता, किसी पहाड़ की चोटी पर जाकर लेट जाते।

एक बार किसी लकड़हारे ने एक हाथी को गाली दे दी। वह गुस्से में लाल-पीला हो गया। उड़कर लकड़‌हारे की झोंपड़ी पर जा बैठा। नीचे उसके बच्चे सो रहे थे। धम्म की आवाज़ हुई। बच्चों ने जोर से एक चीख मारी। बात की बात में झोंपड़ी. टूट गई। हाथी नीचे आ गिरा। दो लड़कियों को छोड़कर सब बच्चे नीचे दब गए।

लड़कियाँ रोती-चिल्लाती जंगल की ओर भागीं। एक दिन नागा जनजाति के कुछ शिकारी उधर जा पहुँचे। लड़कियों ने उनको हाथियों की करतूत बताई। उन्होंने अपने भाले सँभाले। वे जैसे ही हाथियों पर भाले से वार करते, हाथी उड़कर पेड़ों पर जा बैठते। आकाश में उड़ जाते। बहुत देर तक लड़ाई होती रही। हाथी हार माननेवाले नहीं थे। उन्होंने नागाओं के गाँव के गाँव उजाड़ दिए। नागा पुरुषों के साथ-साथ उनकी बहुत-सी स्त्रियाँ भी इस लड़ाई में मारी गई। डरे हुए बच्चे घरों से बाहर निकल आए। हाथियों के डर से झाड़ियों में छिपने लगे। काँटों से उनके शरीर लहुलुहान हो गए।

दूर खड़ी दोनों लड़कियाँ यह सब देख रही थीं। उनकी आँखों में क्रोध के अंगारे फूट रहे थे। एक दूसरे से कहने लगीं- "इस तरह हम नष्ट हो जाएँगे। हाथियों का ही राज्य हो जाएगा। हमें इनसे बदला लेना चाहिए।" देर तक वे दोनों सोचती रहीं। फिर उन्हें एक उपाय सूझ ही गया उन्होंने झाड़ियों में छिपे बच्चों को बुलाया। उन्हें दिलासा दिया। फिर गुलेलें तैयार कीं। हर बच्चे के हाथ में एक-एक गुलेल थी। बच्चों ने कुछ नुकीले पत्थर भी इकट्ठे कर लिए थे।

उन लड़‌कियों से बच्चों ने कहा- "हम लोग झाड़ियों के पीछे छिपकर हाथियों पर वार करें।" लड़‌कियाँ अपनी गुलेल ताने आगे चलीं। बच्चे पीछे-पीछे थे। सामने से हाथियों का झुंड आता दिखाई दिया। बच्चों ने अपनी-अपनी गुलेल. तानकर हाथियों पर सीधा बार किया। नुकीले पत्थरों की चोट की। उड़ते हुए हाथी भी गलेल की मार से बच न सके। हाथी घायल होने लगे। बहुत से हाथियों के पंख भी टूट-टूटकर गिर गए। ब्रह्माजी को युद्ध की खबर पहुँची। वह स्वयं धरती पर आए। बच्चों के साहस को सराहा और हाथियों को डाँटने लगे।

दोनों लड़कियों ने ब्रहमाजी से कहा- "पितामह, हम सब आपकी संतान हैं। फिर यह अन्याय क्यों?"

"कैसा अन्याय?" बह्माजी ने अचकचाकर पूछा।

"आपने हाथी जैसे विशालकाय जानवर के पंख लगाकर अन्याय ही तो किया है। वे उड़-उड़कर हमारे घरों पर बैठ जाते हैं। उनके भार से घर गिर जाते हैं। पंख तो छोटे पक्षियों को ही शोभा देते हैं। आपने देखा होगा, पंख पाकर हाथियों ने क्या तुफान मचाया है। पहले हाथी जंगल में रहते थे। अब गाँव में आकर तबाही मचाने लगे। या तो आप हमारे भी पंख लगा दें या फिर हाथियों के पंख वापस ले लें।

ब्रहमाजी ने पीठ थपथपाकर लड़कियों के साहस की प्रशंसा की। उन्होंने तुरंत हाथियों के पंख गायब कर दिए। फिर कहा- "हाथियों ने जो किया है उसका फल भी उन्हें भुगतना पड़ेगा। अब से हाथी जंगलों में रहेंगे। आबादी में रहना चाहेंगे, तो उन्हें मनुष्य का सेवक बनकर रहना पड़ेगा।" - इतना कहकर ब्रह्माजी अंतर्ध्यान हो गए।

पंख चले जाने से हाथी बहुत निराश हुए। दोनों बहनें अपनी जीत की खुशी में मुस्कुराने लगीं।

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