हिमालय पहाड़ पर अल्मोड़ा नाम की एक बस्ती है। उसमें एक बड़े मियाँ
रहते थे। उनका नाम था अब्बू खाँ। उन्हें बकरियाँ पालने का बड़ा शौक था। बस एक दो
बकरियाँ रखते, दिन
भर उन्हें चराते फिरते और शाम को घर में लाकर बाँध देते। उनकी बकरियाँ कभी-न-कभी
रस्सी तुड़ाकर भाग जाती थीं।
जब भी कोई बकरी भाग जाती, अब्बू खाँ बेचारे सिर पकड़कर
बैठ जाते। हर बार यही सोचते कि अब बकरी नहीं पालूँगा। मगर अकेलापन बुरी चीज है।
थोड़े दिन तक तो वे बिना बकरियों के रह लेते, फिर कहीं
से एक बकरी खरीद लाते।
इस बार वे जो बकरी खरीद
कर लाए थे, वह
बहुत सुंदर थी। अब्बू खाँ इस बकरी को बहुत चाहते थे। इसका नाम उन्होंने “चाँदनी” रखा था। दिन भर उससे बातें करते रहते।
अपनी इस नई बकरी “चाँदनी” के
लिए उन्होंने एक नया इंतजाम किया। घर के बाहर एक छोटे खेत में बाड़ लगवाई। चाँदनी
को इसी खेत में बाँधते थे। रस्सी इतनी लम्बी रखते वह खूब इधर उधर घूम सके।
लेकिन चाँदनी पहाड़ की
खुली हवा को भूल नहीं पाई थी। एक दिन चाँदनी ने पहाड़ की ओर देखा। उसने मन ही मन
सोचा, वहाँ
की हवा और यहाँ की हवा का क्या मुकाबला । फिर वहाँ उछलना, कूदना, ठोकरें खाना और यहाँ हर वक्त बँधे रहना।
मन में इस विचार के आने के बाद, चाँदनी अब पहले जैसी न
रही। वह दिन पर दिन दुबली होने लगी। न उसे हरी घास अच्छी लगती और न पानी मजा देता।
अजीब-सी दर्द भरी आवाज में "में-में” चिल्लाती
रहती।
अब्बू खाँ समझ गए कि
हो-न-हो कोई बात जरूर है। लेकिन उनकी समझ में न आता था कि बात क्या है? एक दिन जब अब्बू खाँ ने दूध
दुह लिया; तो चाँदनी उदास भाव से उनकी ओर देखने लेगी।
मानो कह रही हो, "बड़े मियाँ, अब मैं तुम्हारे पास रहूँगी तो बीमार हो जाऊँगी। मुझे तो तुम पहाड़ पर
जाने दो।"
अब्बू खाँ मानो उसकी बात
समझ गए। चिल्लाकर बोले, “या
अल्लाह, यह भी जाने को कहती है।” वे सोचने लगे, "अगर यह पहाड़ पर चली गई, तो भेड़िया इसे भी खा जाएगा। पहले भी वह कई बकरियाँ खा चुका है।"
उन्होंने तय किया कि चाहे जो हो जाए, वे चाँदनी को
पहाड़ पर नहीं जाने देंगे। उसे भेड़िए से ज़रूर बचाएँगे।
अब्बू खां ने चाँदनी को
एक कोठरी में बंद कर दिया, ऊपर
से साँकल चढ़ा दी। मगर वे कोठरी की खिड़की बंद करना भूल गए। इधर उन्होंने कुंडी
चढ़ाई और उधर चाँदनी उचककर खिड़की से बाहर।
चाँदनी पहाड़ पर पहुँची, तो उसकी खुशी का क्या पूछना।
पहाड़ पर पेड़ उसने पहले भी देखे थे, लेकिन आज उनका रंग
और ही था। चाँदनी कभी इधर उछलती, कभी उधर । यहाँ-कूदी, वहाँ फाँदी, कभी चट्टान पर है, तो कभी खड्डे में। इधर जरा फिसली फिर सँभली। दोपहर तक वह इतनी उछली-कूदी
कि शायद सारी उम्र में इतनी न उछली-कूदी होगी।
शाम का वक्त हुआ। ठंडी
हवा चलने लगी। चाँदनी पहाड़ से अब्बू खाँ के घर की ओर देख रही थी। धीरे-धीरे अब्बू
खाँ का घर और काँटेवाला घेरा रात के अँधेरे में छिप रहा था।
रात का अँधेरा गहरा था।
पहाड़ में एक तरफ आवाज आई "खूँ-खूँ"। यह आवाज सुनकर चाँदनी को भेड़िए का
ख्याल आया। दिन भर में एक बार भी उसका ध्यान उधर न गया था। पहाड़ के नीचे सीटी और
बिगुल की आवाज आई। वह बेचारे अब्बू खाँ थे। वे कोशिश कर रहे थे कि सीटी और बिगुल
की आवाज सुनकर चाँदनी शायद लौट आए। उधर से दुश्मन भेड़िए की आवाज आ रही थी।
चाँदनी के मन में आया कि
लौट चले। लेकिन उसे खूँटा याद आया। रस्सी याद आई। काँटों का घेरा याद आया। उसने
सोचा कि इससे तो मौत अच्छी। आखिर सीटी और बिगुल की आवाज बंद हो गई। पीछे से पत्तों
की खड़खड़ाहट सुनाई दी। चाँदनी ने मुड़कर देखा तो दो कान दिखाई दिए, सीधे और खड़े हुए और दो
आँखें जो अँधेरे में चमक रही थीं। भेड़िया पहुँच गया था।
भेड़िया जमीन पर बैठा था।
उसकी नजर बेचारी बकरी पर जमी हुई थी। उसे जल्दी नहीं थी। वह जानता था कि बकरी कहीं
नहीं जा सकती। वह अपनी लाल-लाल जीभ अपने नीले-नीले ओठों पर फेर रहा था। पहले तो
चाँदनी ने सोचा कि क्यों लडूँ। भेड़िया बहुत ताकतवर है। उसके पास नुकीले बड़े-बड़े
दाँत हैं। जीत तो उसकी ही होगी। लेकिन फिर उसने सोचा कि यह तो कायरता होगी। उसने
सिर झुकाया। सींग आगे को किए और पैंतरा बदला। भेड़िए से लड़ गई। लड़ती रही। कोई यह
न समझे कि चाँदनी भेड़िए की ताकत को नहीं जानती थी। वह खूब समझती थी कि बकरियाँ
भेड़ियों को नहीं मार सकती। लेकिन मुकाबला जरूरी है। बिना लड़े हार मानना कायरता
है।
चाँदनी ने भेड़िए पर एक के बाद एक हमला किया। भेड़िया भी चकरा गया। लेकिन भेड़ियां, भेड़िया था। सारी रात गुजर गई। धीरे-धीरे चाँदनी की ताकत ने जवाब दें दिया, फिर भी उसने दुगना जोर लगाकर हमला किया। लेकिन भेड़िए के सामने उसका कोई बस नहीं चला। वह बेदम होकर जमीन पर गिर पड़ी। पास ही पेड़ पर बैठी चिड़ियाँ इस लड़ाई को देख रहीं थीं। उनमें बहस हो रही थी कि कौन जीता। बहुत-सी चिड़ियों ने कहा, 'भेड़िया जीता।' पर एक बूढ़ी-सी चिड़िया बोली, ‘चाँदनी जीती।'
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