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अपना काम आप करो

बात बहुत पुरानी नहीं है। एक दिन कलकत्ता (कलिकाता अब कोलकाता) स्टेशन पर एक रेलगाड़ी आकर रुकी। ठंड के दिन थे। डिब्बों में से यात्री उतरने लगे। कुली, लोगों का सामान उठाने लगे। एक यात्री पहले दर्जे के डिब्बे के सामने खड़ा था। वह कोट- पैंट पहने था। उसके सिर पर टोप लगा था। वह जवान था। वह कोई बड़ा अधिकारी लग रहा था। उसके पास एक छोटा-सा बैग रखा था। वह उसी का था। वह कुली की तलाश में खड़ा था।

उसी समय उसे एक आदमी दिखाई पड़ा। वह धोती, कुर्ता पहने था। ठंड से बचने के लिए उसने शाल ओढ़ ली थी। उसके पैरों में मामूली सी चप्पलें थीं। उसके पास कोई सामान भी नहीं था। बड़े अधिकारी ने आवाज दी, "ओ कुली, ये सामान बाहर ले चलो।" वह आदमी कुछ देर रुका। उसने कोट पैंट पहने हुए यात्री को देखा। फिर वह बोला, "चलिए हुजूर।" इतना कहकर उसने बैग उठा लिया। पीछे- पीछे युवक चला। आगे-आगे कंधे पर बैग रखे वह आदमी था। दोनों स्टेशन से बाहर आ गए।

 युवक ने एक घोड़ागाड़ीवाले से पूछा, "क्यों भाई, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के घर चलोगे ?" घोड़ागाड़ीवाला कुछ उत्तर न दे पाया। तब तक उस आदमी ने कहा, "चलिए हुजूर। मैं उनका घर जानता हूँ। वे तो यहीं पास में रहते हैं। आप मेरे साथ आइए।" युवक उसके साथ चल दिया।


भीड़ में से होते हुए दोनों पास की एक गली में पहुँचे। थोड़ी ही दूर जाकर एक मकान के सामने वह आदमी रुक गया। उसने कहा, "देखिए हुजूर, ईश्वरचंद्र विद्यासागर का यही मकान है। आप यहीं रुकिए। मैं भीतर जाकर उन्हें बुलाए देता हूँ।" वह आदमी भीतर चला गया।

थोड़ी देर बाद ही बैठक का दरवाजा खुला। धोती, कुर्ता पहने हुए एक आदमी ने आवाज दी, "आइए, इधर बैठक में आ जाइए।"

वह युवक अचरज में पड़ गया। यही आदमी तो मेरा सामान लेकर आया था ! इसी ने बैठक का दरवाजा खोला है! यह कौन है? वह बैठक में गया । उस आदमी ने युवक को बैठाया। फिर पूछा, "कहिए, क्या सेवा करूँ ?" युवक ने कहा, "मुझे विद्यासागरजी से मिलना है।" उस पुरुष ने उत्तर दिया, "मैं ही विद्यासागर हूँ। बोलिए क्या आज्ञा है ?" युवक मारे लज्जा के सिर झुकाए रहा। उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला। फिर वह उठा और विद्यासागरजी के पैरों में गिर पड़ा। वह गिड़गिड़ाते हुए बोला, "मुझे माफ कर दीजिए। मैंने आपको पहचाना नहीं था।" विद्यासागरजी ने युवक को पकड़कर उठाया। वे उसको समझाते हुए बोले, "कोई बात नहीं, तुम अभी जवान हो। अपना काम अपने आप करना सीखो।"

ऐसे थे विद्यासागर। सचमुच वे विद्या के सागर थे।

साभार - मध्यप्रदेश पाठ्य पुस्तक निगम 

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