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एकलव्य की गुरु-भक्ति

गुरु भक्त एकलव्य की कथा महाभारत में वर्णित है । कथा के अनुसार एकलव्य एक भील बालक था। वह बचपन से बहुत होनहार था और उसे तीर चलाने में बड़ा आनंद आता था । वह हमेशा धनुष-बाण अपने साथ रखता था । जब वह बड़ा हुआ तो उसे धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त करने की बहुत इच्छा हुई और वह एक योग्य गुरु की खोज में घर से निकल पड़ा ।

महाभारत काल में गुरु द्रोणाचार्य धनुर्विद्या के महानतम आचार्य माने जाते थे । पांडवों और कौरव भी उन्हीं के आश्रम में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। गुरु द्रोणाचार्य केवल राजपुत्रों को ही  सिखाते थे, सामान्य जन के लिए उनसे शिक्षा प्राप्त करना बहुत दुष्कर कार्य था ।

एक दिन एकलव्य द्रोणाचार्य के आश्रम में पहुंचा । उसने गुरु को प्रणाम किया और बोला, "गुरुवर, मैं एक भील-पुत्र हूँ। मैं बहुत ही आशा के साथ आपके पास धनुर्विद्या सीखने आया हूँ। धनुर्विद्या ही मेरा जीवन है और मैं इस विद्या के महानतम गुरु से ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ । " द्रोणाचार्य उसके साहस और उत्साह को देखकर बड़े प्रभावित हुए । उन्होंने स्नेह से कहा, "वत्स ! मैं विवश हूँ, मैं तुम्हें शिक्षा नहीं दे सकता। मैं केवल राजपुत्रों को धनुर्विद्या सिखाता हूँ।"

गुरु द्रोणाचार्य की बात सुनकर एकलव्य बहुत दुखी हुआ। पर उसने हार न मानी । मन ही मन उसने धनुर्विद्या सीखने का पक्का निश्चय कर लिया। उसने गुरु द्रोणाचार्य को प्रणाम किया और वहाँ से चला गया ।

एकलव्य एक घने जंगल में पहुंचा। वहाँ उसने गुरु द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उसे ही साक्षात् गुरु मानकर वह धनुर्विद्या की साधना करने लगा । अपनी लगन के कारण वह इतना कुशल हो गया कि केवल शब्द सुनकर ही निशाना लगाने लगा ।

एक दिन की बात है। द्रोणाचार्य अपने प्रिय शिष्य अर्जुन तथा अन्य राजकुमारों के साथ घूमते-घूमते उसी जंगल में आए । उनके साथ एक कुत्ता भी था। कुछ आगे बढ़कर अचानक ही वह जोर-जोर से भौंकने लगा, पर कुछ ही देर बाद उसका भोंकना बंद हो गया। इससे गुरु द्रोण और अर्जुन को कुछ शंका हुई । वे शीघ्रता से आगे बढ़े । उन्होंने देखा कि कुत्ते का मुंह तीरों से भरा हुआ है।

द्रोणाचार्य आश्चर्यचकित होकर सोचने लगे कि अर्जुन के सिवाय केवल शब्द सुनकर बाण से निशाना लगाने वाला दूसरा कौन है दोनों आगे बढ़े । जब उन्होंने जाकर देखा तो उनके सामने हाथ में धनुष लिए एकलव्य खड़ा था। अपने गुरु को देखकर एकलव्य ने उन्हें प्रणाम किया। द्रोणाचार्य ने उससे पूछा कि उसने यह विद्या किससे सीखी, तो एकलव्य ने बताया कि वह किस प्रकार उनकी मूर्ति के सामने प्रतिदिन अभ्यास करता है। यह सुनकर द्रोणाचार्य आश्चर्यचकित हुए।

सहसा गुरु द्रोणाचार्य को स्मरण हुआ कि उन्होंने अर्जुन को वचन दिया था कि उससे बेहतर धनुर्धारी संसार में कोई नहीं होगा, लेकिन एकलव्य की विद्या उनके इस वचन में बाधा बन रही थी। ऐसे में उन्हें एक युक्ति सूझी। उन्होंने एकलव्य से कहा, “वत्स, तुमने मुझसे शिक्षा तो ले ली, लेकिन मुझे गुरु दक्षिणा तो अभी तक नहीं दी है।

आदेश करें गुरुवर। आपको दक्षिणा में क्या चाहिए।एकलव्य ने कहा। एकलव्य की बात का जवाब देते हुए द्रोणाचार्य ने कहा कि गुरु दक्षिणा में मुझे तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा चाहिए।“

दाहिने हाथ के अंगूठे के बिना तीर चलाना असंभव था। ऐसा करने पर एकलव्य को अपनी धनुर्विद्या के कौशल से वंचित होना पड़ता । परन्तु महान गुरुभक्त एकलव्य ने तुरंत अपनी कृपाण निकाली और अपना अंगूठा काट कर गुरु द्रोणाचार्य के चरणों में रख दिया। एकलव्य का यह त्याग और गुरु के प्रति श्रद्धा देख द्रोणाचार्य बहुत प्रभावित हुए और बोले- "वत्स ! तू मेरा सच्चा शिष्य है, तेरी साधना महान है। तुम्हारा नाम युगों-युगांतर तक अमर रहेगा।”ऐसा कहते हुए उन्होंने एकलव्य को ह्रदय से लगा लिया ।

सहस्त्रों वर्ष बीत गए लेकिन आज भी एकलव्य की गुरुभक्ति और लगन के कारण उसका नाम एक महान शिष्य के रूप में अमर है।

उपमन्यु की गुरुभक्ति

गुरु आयोदधौम्य के आश्रम में दूर-दूर से शिक्षा प्राप्त करने के लिए बालक आते थे। आयोदधौम्य के आश्रम में  शिष्यों को शिक्षा ग्रहण करने के साथ अन्य समस्त कार्य जैसे साफ़-सफाई, भोजन बनाना, जानवरों की देखभाल करना करने होते थे। सभी शिष्य अपने गुरु का सम्मान करते थे और गुरु भी उनको पुत्रवत स्नेह करते थे। इन्हीं शिष्यों में से एक शिष्य का नाम उपमन्यु था। उससे महान गुरुभक्त उनके आश्रम में और कोई नहीं था। गुरु की आज्ञा से वह रोज गाय चराने जाता था। एक दिन गुरु ने उससे पूछा कि तुम अन्य शिष्यों से अधिक स्वस्थ और शक्तिशाली लग रहे हो, इसका कारण क्या है? गुरु का प्रश्न सुनकर उपमन्यु ने बताया कि मैं भिक्षा में प्राप्त अन्न ग्रहण कर लेता हूं। गुरु ने उसकी परीक्षा लेनी कि सोची और उससे कहा कि बिना मेरी अनुमति के तुम भिक्षा का अन्न ग्रहण नहीं करोगे। उपमन्यु ने बिना किसी विरोध के अपने गुरु की बात मान ली।

लेकिन उपमन्यु के स्वास्थ्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। कुछ दिनों बाद पुन: गुरुजी ने उपमन्यु से वही प्रश्न पूछा तो उसने बताया कि वह अब जिन गायों को चराने जाता है, उनका दूध पीकर अपनी भूख मिटाता है। तब गुरु ने उससे कहा कि वह बछड़े के हिस्से का दूध स्वयं पी रहा है जो कि अनुचित है और उसे गाय का दूध ग्रहण करने भी मना कर दिया। उपमन्यु के बिना प्रत्युत्तर के उनका यह आदेश भी माँ लिया। लेकिन इसके उपरांत भी उपमन्यु पहले की तरह सबसे स्वस्थ ही दीखता रहा तब गुरु ने उससे पुन: वही प्रश्न किया। इस बार उपमन्यु ने बताया कि बछड़े गाय का दूध पीकर जो झाग उगल देते हैं, वह उसका सेवन करता है। गुरु आयोदधौम्य ने अत्यधिक कठोरता दिखाते हुए उसे ऐसा करने से भी मना कर दिया।

जब उपमन्यु के सामने खाने-पीने के सभी रास्ते बंद हो गए तब उसने एक दिन भूख से व्याकुल होकर आकड़े के पत्ते खा लिए। वह पत्तों के रस जहरीले होते हैं। उनका रस शरीर में जाते ही उपमन्यु को दिखाई देना बंद हो गया और वह बेचारा वन में भटकने लगा। अंधेपन के कारण भटकता हुआ वह एक सूखे कुएं में गिर गया। जब उपमन्यु शाम तक आश्रम नहीं लौटा तो गुरु अपने अन्य शिष्यों के साथ उसे ढूंढने वन में पहुंचे। वन में जाकर गुरु ने उसे आवाज लगाई तब उपमन्यु ने बताया कि वह कुएं में गिर गया है।

गुरु ने जब इसका कारण पूछा तो उसने निर्मल भावना से सब कुछ सच-सच बता दी। गुरु आयोदधौम्य को अपनी कठोरता पर पश्चाताप होने लगा और उपमन्यु को देवताओं के चिकित्सक अश्विनी कुमार की स्तुति करने के लिए कहा। उपमन्यु ने ऐसा ही किया। स्तुति से प्रसन्न होकर अश्विनी कुमार प्रकट हुए और उपमन्यु को एक फल देकर बोले कि इसे खाने से तुम पहले की तरह स्वस्थ हो जाओगे। लेकिन गुरुभक्त उपमन्यु ने कहा कि वह अपने गुरु की अनुमति के बिना फल का सेवन नहीं करेगा।

आयोदधौम्य के नेत्रों से उपमन्यु की गुरुभक्ति देखकर अश्रुधारा बहने लगी, उन्होंने उसे फल सेवन की अनुमति प्रदान की। उपमन्यु की इस अडिग गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर अश्विन कुमार ने उन्हें सदैव स्वस्थ रहने का वरदान दिया। फल खाते ही उपमन्यु की आंखों की रोशनी भी पुन: लौट आई। आयोदधौम्य के आशीर्वाद से उसे जल्द ही समस्त वेदों, पुराणों  और धर्मशास्त्रों का ज्ञान हो गया। यह महान गुरुभक्त उपमन्यु आगे जाकर महान ऋषि कहलाया और दुनिया में उसका नाम अमर हो गया।

धूप के दिन–बारिश के दिन (तुर्की की लोककथा)

एक गाँव में हैदर नाम का एक व्यापारी रहता था। उसकी किराने की दुकान थी। गाँव में किराने की एकमात्र दुकान होने के कारण इसकी दुकान में काफी अच्छी ग्राहकी रहती थी।

हैदर की दो बहुत सुंदर और प्रतिभाशाली बेटियाँ थीं। उनके नाम अलीज़ा और सोरा थे। बहनें एक-दूसरे से बहुत प्यार करती थीं। वे अपने पिता का भी बहुत ख्याल रखती थीं। बहनें पिता के लिए स्वादिष्ट भोजन बनाती थीं और घर के काम में माँ की मदद करती थीं। अलीज़ा और सोरा कभी भी एक-दूसरे से अलग नहीं होते थे और हमेश साथ-साथ ही रहते थे। दोनों एक साथ खेलते, गपशप करते, काम करते और सोते थे। एक दूसरे के बिना वे नहीं रह सकते थे।

दोनों बहनों का कोई भाई नहीं था। दोनों बहनों का कोई भाई नहीं था और इस बात से हैदर थोड़ा दुखी रहता था। उसे चिंता रहती थी कि बेटियाँ बड़ी होने के बाद शादी कर अपने-अपने ससुराल चली जायेंगीं तब दुकान और उनकी देखभाल कैसे होगी। लेकिन अपनी दोनों बेटियों से वो बेहद प्यार करता था। समय निकलता गया और लड़कियाँ अब बड़ी हो गयीं। हैदर चाहता था कि रिवाज के अनुसार उनकी जल्द से जल्द शादी कर दी जाए।

 

एक दिन उसकी पत्नी ने कहा, ''हमारी बड़ी बेटी अलीज़ा अब विवाह के लायक बड़ी हो गयी है, हमें उसके लिए एक उपयुक्त दूल्हे की तलाश करनी चाहिए। हैदर ने सहमति व्यक्त की, "मुझे पता है। मैं चाहता हूं कि यह एक भव्य शादी हो। एक व्यापारी का बेटा उसके लिए अच्छा होगा।"

उसकी पत्नी ने इस बात पर आपत्ति जताई, “नहीं। एक व्यापारी का बेटा आपकी तरह व्यस्त रहेगा। उसके पास अलीज़ा के लिए बहुत कम समय होगा। मुझे एक किसान का बेटा चाहिए।“

"हो सकता है, आप सही हों। मैं पास के गाँव के एक बड़े जमींदार को जानता हूँ। लेकिन मुझे नहीं पता कि उसका कोई बड़ा अविवाहित बेटा है या नहीं।"

हैदर ने गाँव के मौलवी से अनुरोध किया कि वह उस गाँव में जाकर पता लगाए कि क्या शादी संभव है। मौलवी को पता चला कि जमींदार गेदाना का एक बेटा था जो शादी के लिए तैयार था। वह गेदाना का इकलौता बेटा था। मौलवी ने तुरंत शादी का प्रस्ताव रखा और अलीज़ा की सुंदरता और गुणों की प्रशंसा की।

कुछ ही समय बाद अलीज़ा की शादी गेदाना के बेटे समर से हो गई। अब सोरा अकेली और बहुत उदास थी। वह बहुत कम हँसती या बात करती थी। वो अलीज़ा की यादों में खोई रहती. इस बीच, अलीज़ा अपने नए घर में खुश थी। परिवार के पास बड़ी ज़मीनें थीं जिनमें हर मौसम में अच्छी फसल होती थी। अलीज़ा जब भी अपने माता-पिता से मिलने आती तो अपने पति और ससुर की खूब तारीफ करती।

एक मुलाकात में, उसने अपने पिता को सलाह दी, "पापा! मुझे लगता है कि आपको सोरा की भी शादी कर देनी चाहिए। इससे उसका अकेलापन दूर हो जाएगा और वह भी प्रसन्न रहेगी। अपने पति के घर में वह नए लोगों से मिलेगी और उसे मेरी याद नहीं आएगी।"

पिता उससे सहमत थे। उसने अपनी पत्नी से कहा, "चाची से सोरा के बारे में बात करो। वह सोरा के लिए दूल्हा ढूंढेगी। तुम्हारी चाची एक मिलनसार व्यक्ति है। वह कई परिवारों को जानती है।"

पत्नी ने बताया, "सही है। कल ही वह एक उपयुक्त लड़के के बारे में जिक्र कर रही थी। मैंने दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि मुझे लगा कि अगर सोरा भी चली गई तो हमारी जिंदगी सूनी हो जाएगी।"

हैदर ने टिप्पणी की, "यह आपका स्वार्थ है। अगर कोई अच्छा लड़का है तो हमें मौका नहीं चूकना चाहिए।"

शादी का प्रस्ताव रखा गया और शादी तय हो गई. सोरा की शादी हो गई. उनके पति का मिट्टी के बर्तनों का बड़ा कारोबार था। परिवार का मिट्टी के बर्तन बनाने का व्यवसाय था। आसपास के सभी गांवों के लोग उनसे ही मिट्टी के बर्तन खरीदते थे। अब सोरा भी अपने ससुराल में खुश थी। सोरा के लिए नया जीवन सुखद था। एक साल के बाद, हैदर ने अपनी दोनों बेटियों को अपने पास आने के लिए आमंत्रित किया।

अपने माता-पिता के घर अलीज़ा और सोरा लगभग एक ही समय पर पहुंचीं। इतने दिनों बाद एक-दूसरे से मिलकर वे बहुत खुश थीं उन्होंने एक-दूसरे को गले लगाया।

अगले दिन, हैदर ने कमरे में अपनी बेटियों को आपस में बहस करते हुए सुना। दोनों आपस में किसी बात को लेकर झगड़ रही थीं। हैदर को आश्चर्य हुआ कि जो बहनें एक-दूसरे से इतना प्यार करती थीं, वे किस बात पर झगड़ रही थीं? हैदर ने सुनने की कोशिश की.

अलीज़ा कह रही थी, "इस साल हम मुसीबत में हैं. अकाल के संकेत हैं. भयंकर सूखा है. हम सभी भारी बारिश के लिए प्रार्थना कर रहे हैं।"

सोरा ने नाराजगी के साथ कहा, "आप भारी बारिश के लिए प्रार्थना क्यों करते हैं? थोड़ी सी बारिश आपकी फसलों को बचा सकती है। क्या आप चाहते हैं कि हम बर्बाद हो जाएं?"

"मैं तुम्हारी बर्बादी की कामना क्यों करूं?" अलीज़ा ने तर्क दिया और कहा, "मैं सिर्फ बारिश के लिए प्रार्थना कर रही हूं। भारी बारिश। इतनी भारी कि हफ्तों तक सूरज नहीं दिखना चाहिए।"

सोरा ने शिकायत की, "तुम बहुत बुरी हो, बहन। तुम मेरी विपत्ति के लिए प्रार्थना कर रही हो। मैं प्रार्थना करती हूं कि हमारे मिट्टी के बर्तनों को सुखाने के लिए हर दिन धूप हो। यहां तक ​​कि एक दिन की बारिश का मतलब हमारे लिए नुकसान है। हमारे पास बेचने के लिए कोई बर्तन नहीं है।"

हैदर को आश्चर्य हुआ कि कैसे वे दोनों बहनें जो एक-दूसरे के लिए अपनी जान तक देने को तैयार रहती थीं कैसे अपने-अपने स्वार्थ के लिए विपरीत चीजें घटित घटित होने की प्रार्थना कर रही थीं। अब हैदर अपनी बेटियों की शादी विपरीत जरूरतों और रुचियों वाले परिवारों में करने से दुखी था। एक चीज जो एक के लिए खुशी लाती थी वह दूसरे के लिए दुख का कारण साबित हो सकती थी। अपने-अपने स्वार्थ के लिए अब वे दोनों बहनें अब एक-दूसरे से नाराज रहने लगीं और अब वे एक-दूसरे से प्यार नहीं करतीं थीं। हैदर को समझ आ गया था कि रिश्ते सोच-समझकर करने चाहिए क्योंकि समय आने पर व्यक्ति का व्यवहार बदलने में देर नहीं लगती।

होशियार लड़का (कोरिया की लोककथा)

 किसी गाँव में एक चरवाहे का जवान बेटा चीमो रहता था।  वह प्रतिदिन अपनी भेड़ें चराने के लिए चारागाह में जाता था। वह भोर होते ही अपनी भेड़ों के साथ चारागाह की ओर निकल पड़ता था और सूर्यास्त से ठीक पहले ही लौट आता था।

एक दिन वह चरागाह में किसी जगह बैठा कुछ सोच रहा थाअचानक उसकी आँखों में चमक आ गई और उसने उत्साह से अपनी फर वाली टोपी हवा में उछाल दी।

दुर्भाग्य से फर की टोपी पास से गुजर रहे एक घोड़े के सिर पर गिर गयी जिसके कारण घोड़ा डर गया और डरकर वह अपने पिछले पैरों पर खड़ा हो गया। घोड़े के ऐसा करने से बेचारा घुड़सवार घोड़े से गिर गया।

वह घुड़सवार शहर के सबसे अमीर व्यापारी का बेटा था। वह कीमती सुन्दर कपड़े पहन कर अपने पिता के किसी काम से जा रहा था। इस अचानक से हुई घटना से वह युवक आक्रोशित हो गया। वह उठा और अपने कपड़े झाड़े। वह चरवाहे लड़के पर चिल्लाया, "बेवकूफ लड़के! क्या तुम्हें कोई समझ नहीं हैतुमने मेरे घोड़े को डरा दिया और मैं गिर गया।"

चीमो बोला, "मैंने खुशी में अपनी टोपी उछाल दी थी। मुझे नहीं पता था कि यह घोड़े के सिर पर गिर जाएगा और ऐसा कुछ हो जाएगा।“

"ऐसी कौन सी बात पर इतना खुश हो रहे थेमुझे सुनने दो। खुशकिस्मती से मुझे गंभीर चोट नहीं आयी, अगर मुझे गंभीर चोट लगती तो मैं तुम्हें जरूर एक थप्पड़ मार देता।"

चीमो ने बताया, "मेरे पिता ने मेरे सामने एक पहेली रखी थी और मैंने उसका उत्तर दे दिया।"

"पहेली क्या थी?"

"ऐसी कौन सी चीज़ है जो आदमी से ऊंची है लेकिन मुर्गी से छोटी है?"

"वह क्या हो सकता है?"

क्या तुम्हें भी उत्तर नहीं मालूम?”

"मुझे पता हैमूर्ख। लेकिन मैं यह तुमसे सुनना चाहता हूँ," युवक ने चतुराई से कहा।

चीमो ने गर्व से बताया, "एक टोपी। सिर पर यह हमेशा एक आदमी से ऊंची होती है। लेकिन नीचे जमीन पर यह मुर्गी से भी छोटी होती है।"

चीमो की चतुराई से युवक प्रसन्न हुआ, "तुम बहुत चतुर हो। अब अगर तुम मुझे कुछ ला दोगे तो मैं तुम्हें बहुत सारा इनाम दूंगा। कल जब मैं वापस यहां आऊंगा तब मेरे लिए एक भेड़ तैयार रखना पर ध्यान रहे वह काली नहीं होनी चाहिए। सफ़ेदस्लेटीमिश्रित काला और सफ़ेद या किसी अन्य रंग का।"।

इतना कहकर युवक चला गया। और चीमो ने इसके बारे में सोचा और सोचा।

अगले दिनवह अपनी भेड़ें चरा रहा था। लौटते समय वह युवक अपने घोड़े पर सवार होकर आया। उसने पूछा, "क्यों प्यारे लड़के! क्या तुम्हें वह भेड़ मिल गयी जो मैंने माँगी थी?"

चीमो ने ख़ुशी से जवाब दिया, "हाँमहोदय। मुझे मिल गया। उसे मैंने घर पर ही रखा है। आप अपने आदमी को भेजकर इसे किसी भी समय ले सकते हैं। लेकिन याद रखें कि आपका आदमी रविवारसोमवारमंगलवारबुधवारगुरुवारशुक्रवार नहीं होना चाहिए, और शनिवार को वह सुबहशाम या रात को नहीं आना चाहिए।“

युवक जोर से हंसा और बोला, "मैं तुम्हारी चतुराई से बहुत प्रसन्न हूं। इनाम के रूप में ये पांच सोने के सिक्के ले लो। और याद रखनाअगर तुम्हें कभी भी नौकरी की जरूरत हो तो सीधे मेरे पास आना।"

युवक ने सिक्के और अपना पता चीमो को बता दिया। और मुस्कुराते हुए अपने घोड़े पर बैठा अपने घर की ओर चल पड़ा।

डींगें हांकने का नतीजा (इटली की लोक कथा)

एनोवा और ग्रीट्स घनिष्ठ मित्र थे। वे एक-दूसरे के ह्रदय के बहुत करीब थे। वे अपना समय एक-दूसरे के साथ व्यतीत करना पसंद करते थे। कुछ समय पश्चात् मोरियो नाम के एक व्यक्ति से उनकी मुलाकात हुई और वह भी उनका ख़ास दोस्त बन गया।

एक बार एक पार्टी में खाना खाते समय मोरियो को कुछ सूझा और वह जोर-जोर से बात करने लगा। उसकी ऊँची आवाज़ सुनकर बाकी लोगों उन तीनों की ओर देखने लगे।

मोरियो डींगें हांकने लगा और उसने दावा किया, "मैं जिस घर में रहता हूं, वह आश्चर्य से भरा हुआ है। यदि आप एक कमरे में जोर से कुछ भी बोलते हैं तो दूसरे कमरे में उसकी गूंज सुनाई देती है।" एनोवा ने बड़े आश्चर्य से पूछा, "सचमुच! एक कमरे की बात दूसरे कमरे में कैसे गूंज सकती है? यह कैसे संभव है?"

मोरियो ने कहा, "यह कोई सामान्य प्रतिध्वनि नहीं है। आवाज़ एक बार नहीं बल्कि दस बार गूँजती है। यदि तुम एक कमरे में मेरा नाम जोर से पुकारोगे तो दूसरे कमरे में मेरा नाम दस बार गूँजेगा।"

"वास्तव में!" सभी ने मोरियो की ओर देखा। पार्टी में एक अमीर आदमी भी मौजूद था। वह मोरियो की डींगें हांकना बर्दाश्त नहीं कर सका। उसे सबसे ज्यादा नापसंद यह लगा कि सबका ध्यान मोरियो की तरह और उस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था। उसने जोर से कहा, "तुम्हारे कमरों से दस बार आवाजें गूंजती हैं? यह कोई बड़ी बात नहीं है। मेरी हवेली में तो बीसों बार आवाजें गूंजती हैं।"

अब सबका ध्यान अमीर आदमी की ओर चला गया जिससे वो खुश हो गया। मोरियो भी आश्चर्यचकित था। एनोवा ने कहा, “ऐसा कैसे संभव हो सकता है। यह असंभव है कि किसी कमरे में एक ध्वनि बीस बार गूँज सकें।"

अमीर आदमी ने तर्क दिया, "यह संभव क्यों नहीं है? आप नहीं जानते कि मेरी हवेली कितनी पुरानी है। आप मेरी हवेली में आ सकते हैं और इसे खुद देख सकते हैं।"

यह सुनकर अनेक लोग उसके दावे का सच जानने के लिए हवेली आने की इच्छा व्यक्त करने लगे। इस बात ने अमीर आदमी को परेशानी में डाल दिया। उसे उम्मीद थी कि वास्तव में कोई भी उनके दावे का परीक्षण नहीं करना चाहेगा। अब वह लोगों को अपने घर आने से नहीं रोक सकता था.

एनोवा और ग्रिट्स ने पूछा, "अच्छा सर, हम आपके घर कब आएंगे?" अमीर आदमी को उन्हें अगली शाम को आमंत्रित करना पड़ा।

अमीर आदमी अब बहुत चिंतित था। अगली शाम लोग आएँगे और उसके कमरों में कोई गूँज नहीं होगी। यह उसके लिए बहुत शर्म की बात होगी। उसने अपनी पत्नी को अपनी समस्या बताई। उन्होंने बातचीत करके एक योजना बनाई।

 

योजना के अनुसार अमीर आदमी ने अपने पुराने वफादार नौकर पिएरो को बुलाया और उसे योजना के बारे में बताया। पिएरो को अगले कमरे से सटी एक कोठरी में छिपना था। जब अमीर आदमी पुकारेगा तो उसे उस बात को बीस बार दोहराना होगा।

नियत समय पर लोग अमीर आदमी की हवेली पर पहुँचे एनोवा और ग्रीट्स भी आ चुके थे। अमीर आदमी ने पुकारा, "एनोवा! एनोवा!" दूसरे कमरे में बीस बार एनोवा के नाम की गूँज उठी जिसे लोग बड़े आश्चर्य से सुनते रहे। गूँज सुनने के लिए लोग एक-दूसरे का नाम पुकारते रहे और जाहिर सी बात थी पिएरो अपने मालिक के आदेशानुसार उन्हें दोहराता रहा।

संयोग से उनमें से एक व्यक्ति का नाम पियरो था। उसके मित्र ने उसका नाम जोर से पुकारा, "पियरो! पियरो! आप कहाँ हैं?" इस बार प्रतिध्वनि की जगह उत्तर आया, "सर! मैं यहाँ हूँ। आ रहा हूँ सर!"

और पियरो कोठरी से बाहर आ गया। उसने सोचा कि उसके मालिक ने उसे मेहमानों की सेवा के लिए बुलाया है। ज्यादा लोगों के होने से शोर ज्यादा था लेकिन कुछ लोगों को एहसास हुआ कि उन्होंने आखिरी आवाज की गूँज नहीं सुनी। एनोवा को भी संदेह हुआ तो उसने भी आवाज लगाई लेकिन इस बार कोई प्रतिध्वनि नहीं थी। लोगों को अब पता चल गया कि उन्हें धोखा दिया गया है। उनमें से कई गुस्से में अमीर आदमी की ओर बढ़े। एनोवा ने गरजते हुए कहा, "क्या तुम्हें हमें धोखा देने के लिए खुद पर शर्म नहीं आती?" कुछ तो उसे मारने के लिए आगे बढ़ने लगे तब अमीर आदमी ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, "कृपया मुझे माफ कर दीजिए। मुझे बहुत खेद है। मैं फिर कभी आपके साथ कोई गलत काम नहीं करूंगा।"

लोग उस अमीर आदमी का मज़ाक उड़ाते हुए चले गये। उसने निश्चय किया कि वह फिर कभी घमंड नहीं करेगा और न ही डींगें हांकेगा। मोरियो की बेवकूफी भरी बातें सुनकर उसने जो मूर्खता की थी उससे उसकी बेइज्जती तो हुई ही, वह मार खाने से बाल-बाल बच गया। इसलिए अगर कोई मूर्ख कुछ बोल रहा है तो हमें अपना विवेक खोकर उसके जैसा मूर्ख नहीं बनाना चाहिए।

बड़ी बात या सोने की ईंट (रूस की लोक कथा)

रूस के सुदूर प्रान्त के एक गाँव में एक किसान के बेटे की शादी थी। घर में उत्सव का माहौल था। घर की महिलाएँ नाच-गा रही थीं। घर के बाहर काफी लोग जमा थे और वे सब हंसी-मज़ाक कर रहे थे। इस अवसर पर कोई भी शांत रहने को तैयार नहीं था, सब के पास कहने को कुछ-न-कुछ अवश्य था. तभी गाँव के दुकानदार ने शेखी बघारी, "तुम्हें पता है

कल हुआ?"

"क्या हुआ?" दूसरे ने पूछा।

"कल मैं गांव के जागीरदार से मिला। उसने मेरा स्वागत किया और मेरा हालचाल पूछा।“

साथ खड़े लोग बोले. "यह असंभव है, इस गाँव का जागीरदार बहुत ही अहंकारी है, उसका शिष्टता से कोई नाता नहीं है। उसे तो बात तक करने का तरीका नहीं पता।"

यह बातचीत किसान का बेटा रॉजर सुन रहा था। उसने भी शेखी बघारी, “अरे चाचा! ऐसा कुछ नहीं है। मैं तो जागीरदार के साथ भोजन भी कर सकता हूँ।“

उसकी बात सुनकर लोग हंसे। तब एक बुजुर्ग ने सलाह दी, "बेटा, एक व्यक्ति को अपनी स्थिति के अनुसार ही बात करना चाहिए। हमें लंबी-लम्बी मनगढ़ंत बाते नहीं करनी चाहिए। जागीरदार हमारा राजा है, वह हम जैसे किसानों को अपने सामने भी नहीं आने देगा।"

रॉजर मुस्कुराया। वह एक चतुर लड़का था। उसने विनम्रता से कहा, "महोदय, मैं बड़े-बड़े दावे नहीं कर रहा हूं। मैं सच बोलता हूं।"

गाँव के दुकानदार को रॉजर की यह बात नहीं जंची, उसने चुनौती दी, "बेटा रॉजर! यदि तुम वास्तव में जागीरदार के साथ एक समय का भी भोजन कर सके तो मैं तुम्हें एक बड़ा इनाम दूँगा।"

"तो, आप क्या इनाम देंगे? क्या आप मुझे अपने दोनों घोड़े देंगे?” रॉजर ने पूछा।

"न केवल दोनों घोड़े बल्कि मैं तुम्हें अपनी सबसे बढ़िया गाय भी दे दूंगा। दुकानदार ने घमंड से कहा और पूछा, "लेकिन मुझे एक बात बताओ कि तुम एक दिन के भीतर उसके साथ भोजन नहीं कर सके तो तुम मुझे क्या दोगे?"

"अगर मैं असफल हुआ तो मैं तीन साल तक आपका गुलाम बनकर रहूँगा" रॉजर ने उत्तर दिया।

सभी ने रॉजर की ओर अविश्वास से देखा। उसने एक ऐसी चुनौती स्वीकार की थी जिसे पूरा करना असंभव था।

अगली सुबह, रॉजर जागीरदार की हवेली में गया। द्वारपाल ने उसे रोका। रॉजर ने उससे कहा, "अंदर जाओ और जागीरदार से पूछो कि क्या वह सोने की ईंटों के बारे में जानता है। अन्यथा, मैं किसी और के पास जा रहा हूँ।" द्वारपाल हैरान था। वह दौड़कर अंदर गया और उसने इसके बारे में बताया।

यह सुनकर जागीरदार भी हैरान रह गया। लेकिन उसने शांत दिखने की कोशिश की और आदेश दिया, "लड़के को अन्दर बुला लाओ। और हमारे दोपहर के भोजन की व्यवस्था करो।" रॉजर को सम्मानपूर्वक अंदर ले जाया गया और खाने की मेज पर बैठाया गया। दोपहर का भोजन और फल रखे गये थे।

थोड़ी ही देर में जागीरदार भी आ गया। वहां जाकर उसने अपना स्थान ग्रहण किया। उसने लड़के से पूछा, "बेटा, तुम कौन हो? तुम्हारे पिताजी क्या करते हैं?"

रॉजर ने उत्तर दिया, "मेरा नाम रॉजर है, सर। मेरे पिता एक किसान हैं। मैं सिर्फ यह जानना चाहता था कि सोने की एक ईंट कितने धन के बराबर होगी? कोई उस पैसे में क्या खरीद सकता है?" जागीरदार अब भी बहुत हैरान था। उसने रॉजर को बताया, "बेटा, सोने का एक ईंट का मतलब है एक बड़ा पैसा। इतना पैसा कि इससे तुम बहुत सी जमीनें और बहुत सारे मवेशी खरीद सकते हो। वैसे ईंट का सही मूल्य जानना ईंट के वजन पर निर्भर करता है। मुझे ईंट देखने दो। तुम्हारे पास कितनी ईंटें हैं? या सिर्फ एक ईंट है? ईंट मेरे पास लाओ. मैं तुम्हें अच्छी कीमत दूँगा।" जागीरदार की रुचि सोने की ईंट के बारे में बढती जा रही थी।

रॉजर चुपचाप अपना दोपहर का भोजन बड़े स्वाद के साथ खा रहा था। जागीरदार ने सोचा कि शायद लड़के को उससे अच्छी कीमत मिलने की आशा नहीं है तभी वह कुछ उत्तर नहीं दे रहा है तो उसने रॉजर को आश्वस्त करते हुए कहा, "बेटा! तुम्हें जो कीमत चाहिए, वही मिलेगी।" मैं तुम्हें जमीनें भी दूंगा। मुझ पर विश्वास करो और ईंट मेरे पास ले आओ।"

रॉजर ने शांत स्वर में कहा, "महोदय, मैंने कभी नहीं कहा कि मेरे पास सोने की ईंटें हैं। मैं बस एक सोने की ईंट का मूल्य जानने की कोशिश कर रहा था। अगर कल या किसी और दिन मुझे अगर कोई ऐसी ईंट मिली तो ...''

''हट जाओ, बदमाश! क्या तुम मुझे मूर्ख बनाने की कोशिश कर रहे हो?" जागीरदार गुस्से में गरजा और उसने अपने सैनिकों को बुलाया।

"कृपया परेशानी न उठाएं। मैं खुद जा रहा हूं", रॉजर ने प्रस्थान करते समय कहा, "मुझे आपसे जमीन या मवेशियों की आवश्यकता क्यों होगी, आपके साथ दोपहर के भोजन कर लेने मात्र से ही अब मुझे दो घोड़े और एक दुधारू गाय मिल जाएगी।"

जागीरदार ने मुस्कुराते हुए बातूनी रॉजर को जाते देखा और गुस्से के साथ अपने महल के अन्दर चला गया।

पेड़ों के लिए पत्तियां (न्यूजीलैंड की लोककथाएँ)

क्या आप विश्वास कर सकते हैं कि सदियों पहले पेड़ों पर पत्तियाँ नहीं हुआ करती थी। बाद में उनमें पत्तियाँ अलग से लगायी गयी। बात सच तो नहीं है लेकिन न्यूजीलैंड में एक बहुत ही प्रसिद्ध लोककथा तो ऐसा ही कुछ कहती है इस बारे में. आइये पढ़ते हैं -

सदियों पहले की बात है, उस समय पेड़ों पर पत्ते नहीं हुआ करते थे। मनुष्य, पशु-पक्षियों और अन्य जीव-जन्तु बिना पत्तों वाले पेड़ों को देखते थे। गर्मी के दिनों में लोग गर्मी से राहत पाने के लिए कुछ न कुछ इंतजाम करते थे क्योंकि पत्तों के बिना पेड़ ठंडी छाया नहीं दे पाते थे। सर्दियों के दौरान जीव-जंतु बिलों के अंदर रहते थे क्योंकि नंगे पेड़ बाहर बर्फीली ठंडी हवाओं को नहीं रोक पाते थे। ऐसे ही कई वर्षों तक चलता रहा, किसी ने कुछ न सोचा, न किया ।

लेकिन एक साल बहुत तेज गर्मी पड़ी जिससे मनुष्य और सभी प्राणी परेशान हो उठे। सारा पानी पानी सूख रहा था जिससे  तालाब और झीलें मिट्टी के दलदल में बदलने लगे थे।

तब गाँव के जानवरों ने एक बैठक की और फैसला किया कि वे राजा से अनुरोध करेंगे कि पेड़ों को किसी चीज़ से ढक दिया जाए ताकि उन्हें गर्मी से राहत मिल सके। इसलिए, कुछ हाथी, हिरण, शेर और बैल राजा के पास गए और विनती की, "राजा! इस बार गर्मी ने हमारा जीवन कठिन बना दिया है। इससे भी बदतर पानी की कमी है। कृपया हमें छाया प्रदान करने के लिए कुछ करें।

राजा ने एक मंत्री से प्राणियों को छाया देने और कुछ पानी उपलब्ध कराने के लिए पेड़ों को किसी वस्त्र आदि से ढकने को कहा। मंत्री जंगल में गया और कुछ पेड़ों को ढँकदाया इससे  कुछ तो राहत मिली लेकिन सभी के लिए तो ये पर्याप्त नहीं था इसलिए उन्होंने बारी-बारी से पेड़ों की छाया का उपयोग किया।

मंत्री ने देखा कि छाया ने जानवरों को खुश कर दिया है और वे पानी के बारे में भूल गए हैं। अत: वह चुपचाप लौट आये।

जब मनुष्यों को जानवरों के लिए पेड़ों की छाया के बारे में पता चला तो वे भी राजा के पास गये। उन्होंने राजा से मनुष्यों को भी छाया देने का अनुरोध किया। उनके लिए पेड़ भी लगाएं और पानी भी उपलब्ध कराएं। राजा ने उसी मंत्री से आवश्यक कदम उठाने को कहा।

मंत्री ने फिर उसी तरह दो-तीन पेड़ लगवाये और लौटकर दूसरे कामों में लग गये।

लेकिन मनुष्य अन्य जानवरों की तरह शांत नहीं थे। वे छायादार पेड़ों के नीचे जाने के लिए आपस में लड़ने लगे। जब लड़ाई बहुत गंभीर हो गई तो राजा को इसकी सूचना दी गई। राजा ने संबंधित मंत्री से पूछा, "प्रिय मंत्री! हमारी प्रजा इतनी दुखी क्यों है! यह बहुत बुरा है। आपको इसके बारे में कुछ करना होगा।"

मंत्री ने कहा, "महाराज, मेरा सुझाव है कि पेड़ों को तिरपाल से ढकने के बजाय, अगर हम पेड़ों की शाखाओं पर पत्तियां चिपका दें तो यह बेहतर विचार होगा। इससे छाया मिलेगी और हवा भी गुजरेगी जिससे आसपास का वातावरण ठंडा हो जाएगा। यदि हम ऐसा अधिक से अधिक पेड़ों के साथ कर सकें तो इससे लोगों को अधिक राहत मिलेगी।

राजा ने सहमति व्यक्त की, "ठीक है। पत्तों को चिपका दो।"

मंत्री बोला, 'सर, अगर हम एक ही जैसे और एक ही आकार की पत्तियां चिपका दें तो पेड़ खूबसूरत दिखेंगे। हमें कुछ कारीगरों की जरूरत होगी।'

राजा ने कुछ कारीगरों को नियुक्त करने का आदेश दिया। जब वे पत्ते बनाने लगे तो इस बीच मंत्री ने पानी की समस्या से बचने के लिए कुछ कुएँ भी खुदवा दिए। अब मंत्री ने उन कारीगरों की मदद से शाखाओं पर पत्ते चिपकाने शुरू किये। एक ही आकार और आकृति की पत्तियों को चिपकाने और तैयार करने में काफी समय लग रहा था। गर्मी से परेशान लोग देरी को लेकर शिकायत कर रहे थे।

एक गाँव के मुखिया ने कहा, "मंत्री महोदय, आपके वे कारीगर बहुत धीमे हैं। वे पूरे दिन में एक पेड़ पर भी पत्ते नहीं डाल सकते। हम तो गर्मी से मर जायेंगे।"

मंत्री ने तर्क दिया, "देखो! हर काम में समय लगता है। अगर तुम इतने अधीर हो तो हमारी मदद क्यों नहीं करते?"

मुखिया ने उत्तर दिया, "हम करेंगे। पूरी आबादी इस कार्य को करने के लिए तैयार है। लेकिन वे एक ही जैसी पत्तियाँ नहीं बना सकते। विभिन्न लोगों के समूहों द्वारा बनाई गई पत्तियों की सैकड़ों तरह की आकृतियाँ होंगी।"

मंत्री ने सहमति जताते हुए कहा, "इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। महत्वपूर्ण बात यह है कि काम जल्द से जल्द किया जाना है।" अब सभी लोग पत्तों की आकृतियों को काटने और उन्हें चिपकाने में व्यस्त हो गये। सबको आनंद आने लगा और पूरा राज्य इसी कार्य में लग गया।

जब इंसानों को ऐसा करते जानवरों ने देखा और वे भी वैसा ही करने लगे। जल्द ही, अधिकांश पेड़ पत्तों से लदे हुए दिखने लगे। चिपकाते समय कई पत्तियाँ गिरकर नीचे ज़मीन पर फैल गईं। अब सभी खुश दिख रहे हैं क्योंकि पेड़ पत्तों से ढँके हुए थे। पेड़ों की छाया के नीचे पत्तियों के ढेर पर बैठना हर किसी के लिए एक आनंद बन गया था। इंसान खुश थे और जानवर भी खुश थे। पक्षी खुशी से गाने लगे। पेड़ों की पत्तियों की ख़ुशी में आसमान भी झूम उठा और तेज बारिश हुई।

कहते हैं, तब से ही पेड़ों पर विभिन्न प्रकार की पत्तियाँ उगने लगीं, जिससे सभी प्राणियों को आरामदायक छाया और ठंडी हवा मिली और धरती पर रहने वाले सभी जीव प्रसन्न हो गए।

लालबुझक्कड़ की सूझ (महेश कुमार मिश्र)

बहुत पुरानी बात है। एक गाँव में एक आदमी रहता था। उसका नाम लालबुझक्कड़ था। वह अपनी सूझबूझ से कविता रच देता था। आसपास के कई गाँवों में वही कुछ पढ़ा-लिखा था। सभी गाँववाले उसके पास अपनी कठिनाई लेकर आते थे। लालबुझक्कड़ उन कठिनाइयों को दूर करता था। सब लोग लालबुझक्कड़ का आदर करते थे।

एक बार रात के समय लालबुझक्कड़ के गाँव में से होकर एक हाथी निकला। गाँव के सब लोग सो रहे थे। किसी को पता नहीं चला कि हाथी कब निकल गया। गाँव के रास्तों में धूल बहुत होती है। उस धूल पर हाथी के पैरों के बड़े-बड़े निशान बन गए।

सबेरा हुआ, सब लोग जागे। कुछ ने वे गोल निशान रास्ते में देखे। बहुत सोचने पर भी वे यह बात न समझ सके कि ये किस चीज के निशान हैं क्योंकि उन्होंने कभी भी अपने जीवन में हाथी देखा नहीं था इसलिए पैरों के निशान देखकर वे कुछ समझ न सके। इसलिए सबने लालबुझक्कड़जी को वे निशान दिखाए। गोल-गोल, बड़े निशान लालबुझक्कड़जी ने देखे। फिर वे सोचकर कविता में बोले -

"लालबुझक्कड़ बूझ के और न बूझो कोय।

पैर में चक्की बाँध के हिरना कूदो होय।।"

इसका अर्थ है कि लालबुझक्कड़ से प्रश्न पूछकर और किसी से न पूछना । अपने पैरों में चक्की बाँधकर कोई हिरन कूदा होगा, जिसके ये निशान हैं।

ऐसी थी लालबुझक्कड़जी की सूझबूझ !

सच्चा सुख (महेश कुमार मिश्र)

किसी शहर में एक सेठजी रहते थे। उनका नाम आशाराम था। उनके पास बहुत-से मकान थे, बहुत-सा धन था। सोने-चाँदी की उनके यहाँ कमी न थी। पर वे थे बड़े कंजूस। जरूरी कामों लिए भी वे पैसे खर्च नहीं करते थे। वे बहुत पैसा जमा करना चाहते थे। उन्हें अपने नाती-पोतों तक की चिंता थी।

एक दिन उस शहर के मंदिर में एक संत आए। संत बहुत सीधे और सरल स्वभाव के थे। वे सबकी इच्छा पूरी कर देते थे। धीरे-धीरे आशाराम को भी संत के आने की खबर मिली। उनके मन में लालच आ गया। उन्हें लगा कि शायद, संत उनकी इच्छा पूरी कर देंगे।

दूसरे ही दिन आशाराम पैदल चलकर संत के पास गए। उन्हें प्रणाम करके वे एक ओर बैठ गए। संत ने बड़े प्रेम से उनसे बातचीत की। वे समझ गए कि आशाराम को किसी चीज की जरूरत है। वे आशाराम को अधिक सुखी बनाना चाहते थे। संत बोले - "आपकी इच्छा अवश्य पूरी हो जाएगी।" सेठजी खुशी से उछल पड़े।

संत ने फिर कहा- "मगर एक शर्त है, वह तुम्हें पूरी करनी पड़ेगी।" शर्त की बात सुनकर आशाराम घबराए। उन्होंने सोचा, संतजी कहीं कुछ रुपया-पैसा न माँग बैठें। पर उन्हें अपनी इच्छा तो पूरी करनी ही थी। हिम्मत करके बोले, "शर्त बताइए महाराज ! मैं उसे जरूर पूरी करूँगा।"

संत बोले, "आपके पास ही एक गरीब परिकर रहता है। परिवार में केवल दो प्राणी रहते हैं। आप उन्हें कल के भोजन के लिए सामान दे आइए।"

आशाराम के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी। वे सोचने लगे, "अब मेरी इच्छा जरूर पूरी हो जाएगी।" तुरंत ही वे भोजन का सामान लेकर गरीब के पास गए। वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि किवाड़ खुले हैं, माँ-बेटी काम में लगी हुई हैं। किसी ने भी आशाराम की ओर ध्यान नहीं दिया।

आशाराम कुछ देर खड़े रहे। फिर बोले, "मैं तुम्हारे लिए खाने का सामान लाया हूँ। इससे तुम्हारी भोजन की कमी पूरी हो जाएगी।" माँ ने कहा, "बेटा, आज का खाना तो मेरे पास है। इसलिए हम इसे नहीं लेंगे।" "माँ, भोजन की आवश्यकता तो आपको कल भी होगी। आप इसे कल के

लिए ही रख लें।" "हम कल की चिंता नहीं करते। हमारी चिंता भगवान करते हैं। उन पर हमारा पूरा भरोसा है।" माँ ने उत्तर दिया। ऐसा कहकर वह फिर अपने काम में लग गई।

माँ की बात सुनकर आशाराम खड़े रह गए। वे विचार करने लगे। धीरे-धीरे उनकी समझ में बात आ गई। उन्होंने
सोचा कि यह परिवार गरीब अवश्य है, लेकिन है बहुत सुखी। इसे कल की कोई चिंता नहीं। एक मैं हूँ, जो नाती-पोतों की चिंता कर रहा हूँ।

आशाराम घर नहीं गए। वे सीधे संतजी के पास पहुँचे। उन्हें प्रणाम करके बैठ गए। संतजी ने पूछा, "उस गरीब परिवार को खाने का सामान दे आए ?" आशाराम ने कहा, "महाराज ! आपने मेरी आँखें खोल दीं। सचमुच संतोष ही सबसे बड़ा धन है। दुनिया में संतोष ही सबसे बड़ा सुख है।"

संतजी ने हँसकर कहा, "जिस इच्छा से तुम यहाँ आए थे, वह पूरी हो गई। जाओ, सारा धन गरीबों को बाँट दो।" आशाराम ने ऐसा ही किया। अब वे बड़े प्रसन्न और सुखी थे।

साभार - श्री महेश कुमार मिश्र एवं मध्यप्रदेश पाठ्य पुस्तक निगम 

अपना काम आप करो

बात बहुत पुरानी नहीं है। एक दिन कलकत्ता (कलिकाता अब कोलकाता) स्टेशन पर एक रेलगाड़ी आकर रुकी। ठंड के दिन थे। डिब्बों में से यात्री उतरने लगे। कुली, लोगों का सामान उठाने लगे। एक यात्री पहले दर्जे के डिब्बे के सामने खड़ा था। वह कोट- पैंट पहने था। उसके सिर पर टोप लगा था। वह जवान था। वह कोई बड़ा अधिकारी लग रहा था। उसके पास एक छोटा-सा बैग रखा था। वह उसी का था। वह कुली की तलाश में खड़ा था।

उसी समय उसे एक आदमी दिखाई पड़ा। वह धोती, कुर्ता पहने था। ठंड से बचने के लिए उसने शाल ओढ़ ली थी। उसके पैरों में मामूली सी चप्पलें थीं। उसके पास कोई सामान भी नहीं था। बड़े अधिकारी ने आवाज दी, "ओ कुली, ये सामान बाहर ले चलो।" वह आदमी कुछ देर रुका। उसने कोट पैंट पहने हुए यात्री को देखा। फिर वह बोला, "चलिए हुजूर।" इतना कहकर उसने बैग उठा लिया। पीछे- पीछे युवक चला। आगे-आगे कंधे पर बैग रखे वह आदमी था। दोनों स्टेशन से बाहर आ गए।

 युवक ने एक घोड़ागाड़ीवाले से पूछा, "क्यों भाई, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के घर चलोगे ?" घोड़ागाड़ीवाला कुछ उत्तर न दे पाया। तब तक उस आदमी ने कहा, "चलिए हुजूर। मैं उनका घर जानता हूँ। वे तो यहीं पास में रहते हैं। आप मेरे साथ आइए।" युवक उसके साथ चल दिया।


भीड़ में से होते हुए दोनों पास की एक गली में पहुँचे। थोड़ी ही दूर जाकर एक मकान के सामने वह आदमी रुक गया। उसने कहा, "देखिए हुजूर, ईश्वरचंद्र विद्यासागर का यही मकान है। आप यहीं रुकिए। मैं भीतर जाकर उन्हें बुलाए देता हूँ।" वह आदमी भीतर चला गया।

थोड़ी देर बाद ही बैठक का दरवाजा खुला। धोती, कुर्ता पहने हुए एक आदमी ने आवाज दी, "आइए, इधर बैठक में आ जाइए।"

वह युवक अचरज में पड़ गया। यही आदमी तो मेरा सामान लेकर आया था ! इसी ने बैठक का दरवाजा खोला है! यह कौन है? वह बैठक में गया । उस आदमी ने युवक को बैठाया। फिर पूछा, "कहिए, क्या सेवा करूँ ?" युवक ने कहा, "मुझे विद्यासागरजी से मिलना है।" उस पुरुष ने उत्तर दिया, "मैं ही विद्यासागर हूँ। बोलिए क्या आज्ञा है ?" युवक मारे लज्जा के सिर झुकाए रहा। उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला। फिर वह उठा और विद्यासागरजी के पैरों में गिर पड़ा। वह गिड़गिड़ाते हुए बोला, "मुझे माफ कर दीजिए। मैंने आपको पहचाना नहीं था।" विद्यासागरजी ने युवक को पकड़कर उठाया। वे उसको समझाते हुए बोले, "कोई बात नहीं, तुम अभी जवान हो। अपना काम अपने आप करना सीखो।"

ऐसे थे विद्यासागर। सचमुच वे विद्या के सागर थे।

साभार - मध्यप्रदेश पाठ्य पुस्तक निगम 

पाँच बातें

शिक्षित और युवा व्यक्ति के पास कोई काम का न होना सचमुच दुखद है. हरपाल सिंह के साथ भी कुछ ऐसा ही था.गांव में थोड़ी बहुत जमीन थी पर उससे परिवार का गुजारा होना बड़ा कठिन था.वह अपनी बूढ़ी माँ,पत्नी-बच्चों के लिए आवश्यक वस्तुएँ नहीं जुटा पाता था.इसलिए आज उसने विचार कर लिया था कि वह किसी राजा के पास जाकर कोई चाकरी ही कर लेगा.

उसे अपने परिवार से बहुत प्यार था. पर उनकी बेहतरी के लिए अपने मन को कठोर करके आज वह किसी को बिना बताए चांदनी रात में चुपचाप घर से निकल पड़ा.गांव में सन्नाटा पसरा हुआ था.कुछ कुत्तों के भौंकने का स्वर सुनाई दे रहा था. रात के अंधकार में तारे टिमटिमा रहे थे.

गांव से थोड़ी ही दूर एक बूढ़ा व्यक्ति अपनी झोपड़ी में रहता था.लोग उसे पागल कहा करते थे.पर वह जब भी कोई बात कहता,ज्ञान की बात ही कहता.हरपाल ने सोचा कि क्यों न उस बूढ़े बाबा से ज्ञान की कुछ बातें सुनता चलूँ.परदेस जा रहा हूं,न जाने कौन सा संकट आन पड़े. सो वह उस बूढ़े की कुटिया में पहुंच गया और अपनी बात कही. बूढ़े ने कहा बेटा परदेस जा रहे हो तो मेरी ये पांच बातें सदैव याद रखना-

1.जो तुम्हारी सेवा करे तुम ही उसकी सेवा करो.

2.किसी को दिल दुखाने वाली बात मत करना हर काम इमानदारी से करो.

3. हर काम इमानदारी से करो.

4.बिना योग्यता के दूसरों से बराबरी का दावा मत करो.

और 

5.जहां भी ज्ञान की दो बातें मिले ध्यान से सुनो.

हरपाल सिंह ने उस वृद्ध की पांचों बातें गाठ बांधली और निकल पड़ा एक बड़े से नगर की ओर....|

प्रातः काल वह एक बड़े से नगर में पहुंचा.महाराज की दरबार पहुँचकर उसने प्रधान सेवक से विनय की. प्रधान सेवक ने उसकी दिन था और सरलता से प्रभावित होकर उसने भृत्य का कार्य मिल गया.हरपालसिंह ने प्रधान सेवक का बहुत आभार माना.

एक बार राजा साजो-सामान सहित किसी यात्रा पर निकला.रास्ता लंबा था, गर्मी के दिन थे.यात्रा दल के पीने योग्य पानी समाप्त हो गया.राजा और प्रजा दोनों व्यास से व्याकुल हो उठे. राजा ने प्रधान सेवक को आदेश दिया कि-अविलंब मेरे और सबके लिए पेयजल का प्रबंध करो अन्यथा तुम बुरे परिणाम के लिए तैयार रहो.

भयभीत प्रधान सेवक अपने साथियों के साथ वन में जल की तलाश करने निकल पड़ा पर,उनका सारा प्रयास व्यर्थ रहा. वह यात्रा दल के पास निराश होकर वापस लौटा.

हरपाल सिंह भी निकट ही खड़ा था.उनसे उसकी यह दशा देखी न गई. क्योंकि उसी के कारण ही तो आज वह राज दरबार की सेवा कर रहा है.

उसी बूढ़े की पहली बात याद आई-जो भी तुम्हारी मदद करें तुम भी उसकी मदद करो.

उसने प्रधान सेवक से प्रश्न किया प्रधान जी क्या आसपास कहीं पर भी जल का पता नहीं चला?

प्रधान ने कहा-हाँ हरपाल.सभी ताल नदी सूखे हुए हैं.जल का नामोनिशान तक नहीं है हां एक बावड़ी है लेकिन....|"

लेकिन क्या?-हरपाल सिंह ने पूछा.

"आसपास के लोगों ने बताया कि वहां एक भूत रहता है.आज तक जो भी उस कुएं में उतरा वो कभी वापस नहीं लौट सका.इसलिए हम में से कोई भी वहां जाने की हिम्मत न कर सका." प्रधान सेवक ने अपनी बात पूरी की.

हरपाल सिंह ने कहा-"मित्र तुमने मेरी सहायता की है तुम्हारा मुझ पर बड़ा एहसान है इसलिए मैं अवश्य जल लेने जाऊंगा." सभी ने हरपाल सिंह को रोकना चाहा, पर हरपाल सिंह अपने दोनों हाथों में मटका लेकर निडर होकर चल पड़ा,उसी भूतिया बावड़ी की ओर.

हरपाल सिंह चलते-चलते बावड़ी के पास पहुंचा. बड़े-बड़े और ऊंचे पेड़ों के बीच घिरा हुआ वह कुआँ सचमुच डरावना लग रहा था.ऐसा प्रतीत होता था की वर्षों से यहां कोई नहीं आया है.

कुएँ से नीचे तक जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थी,और नीचे बिल्कुल अंधेरा था. एक बार तो हरपाल सिंह का हृदय भी काँप गया. पर वह हिम्मत करके धीमी कदमों से कुएँ से जल लेने उतरा.

बावड़ी के जल स्तर तक पहुंच कर और झुककर उसने दोनों अपने मटके पानी से भर लिए.दोनों हाथों में जल से भरे घड़े लिए वह जैसे ही ऊपर सीढ़ियां चढ़ने को तैयार हुआ. उससे ठीक सामने एक भयानक सा आदमी खड़ा था. बिल्कुल काला कलूटा बाल बड़े बड़े और बिखरे हुए.कमर से ऊपर का भाग नग्न था.और उसने किसी नर कंकाल को अपने सीने से लगाए रखा था.

हरपाल सिंह स्तंभित रह गया.

उस डरावने आदमी ने हरपाल से प्रश्न किया ओ नौजवान!मेरी पत्नी के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है?

हरपाल कुछ कह नहीं जा रहा था कि उसे वृद्धि की दूसरी बात याद आई किसी के दिल दुखाने वाली बात मत करो. उसने जवाब दिया-''ऐसी सुंदर स्त्री तो मैंने जीवन में कभी नहीं देखा."

हरपाल सिंह का उत्तर सुनकर वह व्यक्ति बहुत प्रसन्न हुआ उसने कहा-" नौजवान मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं. मैं अपनी पत्नी से इतना प्रेम करता था कि आज तक उसे लेकर यहां वहां फिर रहा हूं.आज तक जो भी इस कुएँ में आया उन सब से मैंने यही प्रश्न किया.पर उन्होंने इसे हड्डी का ढांचा कह दिया इसलिए मैंने उन सब को मार डाला. पर तुमने मेरी पत्नी की प्रशंसा करके मुझे खुश कर दिया है.बोलो नौजवान तुम क्या चाहते हो?"

हरपाल सिंह ने कहा-"मान्यवर आसपास के लोगों को आपके भय के कारण पानी नहीं मिल पाता है. यदि आप मुझसे सचमुच प्रसन्न हैं तो कृपा करके आप इस बावड़ी को छोड़कर चले जाइए."

उस आदमी ने कहा बिल्कुल ऐसा ही होगा और तुरंत वह सदा सदा के लिए उस कुएँ को छोड़कर चला गया.

हरपाल सिंह जब मटके में पानी लेकर वापस  पहुंचा तो सबके खुशी का ठिकाना न रहा. राजा प्रजा सब को भरपूर पानी मिला.

राजा ने हरपाल सिंह से प्रसन्न होकर उसके पद और वेतन में वृद्धि कर दी.

अब हरपाल सिंह को राज्य का खजांची बना दिया गया. यानी कि  राजकोष के देखरेख का जिम्मा अब उसके ही हाथों में था. अपना काम करते हुए उसे बूढ़े की तीसरी बात हमेशा याद आती थी कि-हर काम इमानदारी से करो.

हरपालसिंह की ईमानदारी से काम करने और पाई-पाई के हिसाब रखने की वजह से भ्रष्ट कर्मचारी उससे नाराज  रहने लगे क्योंकि अब उनके अतिरिक्त आय का रास्ता बंद हो गया.

प्रधानमंत्री ने हरपालसिंह को लालच देकर कहा कि यदि तुम हमसे मिलकर रहोगे तो मैं और हमारे साथी मिलकर तुम्हें एक प्रतिष्ठित पद दिलवा देंगे.जिससे तुम्हारे सम्मान और यश में वृद्धि होगी. 

पर हरपाल ने बूढ़े की चौथी बात का स्मरण किया-बिना योग्यता के किसी से बराबरी का दावा मत करो. उसने प्रधानमंत्री का अनुचित प्रस्ताव ठुकरा दिया.

इससे नाराज होकर दूसरे ही दिन सुबह चापलूस मंत्रियों ने राजा के पास जाकर शिकायत की,कि हरपालसिंह अपने कार्य  में हेरा-फेरी करता है.और मना करने पर उसने हमें खरी-खोटी सुनाई और उसने राजपरिवार को भी अपमानजनक शब्द कहे हैं.

राजा यह सुनकर आगबबूला हो गया.उसने कहा-"हरपालसिंह का यह दुस्साहस?कि हमारे ही टुकड़ों पर पलकर हमें ही अपशब्द कहे.हम जब तक हरपालसिंह का कटा सिर नहीं देख लें,हमारे परिवार का कोई भी सदस्य पानी तक नहीं पिएगा."

राजा ने तुरंत एक सैनिक को बुलाकर उससे कहा-"सैनिक हमारे नगर से कुछ दूर के गाँव में एक भवन निर्माण का कार्य चल रहा है.आज एक व्यक्ति तुमसे आकर यह पूछेगा कि काम कितना बाकी है? यह सुनते ही तुम उसकी गर्दन काटकर मेरे पास ले आना."

राजा की आज्ञा पाकर वह सैनिक चला गया.

कुछ देर बाद राजा ने हरपाल से को अपने पास बुला कर कहा-"हरपाल सिंह पास के एक गांव में बहुत बड़ा भवन बन रहा है तुम शीघ्र जाओ और वहां के कारीगर से पूछकर आओ कि काम कितना बाकी है?

"जो आज्ञा महाराज!"

हरपाल सिंह एक घोड़े पर सवार होकर अनजाने में अपने ही मृत्यु की ओर बढ़ चला.

हरपाल सिंह अश्व पर सवार हो कुछ विचार करते हुए यात्रा में मग्न था.

उसने देखा कि रास्ते पर ही एक बड़ा सा आयोजन हो रहा था जिसमें ज्ञान की चर्चा हो रही थी. हरपाल आगे बढ़ जाना चाहता था पर उसे बूढ़े की पांचवी बात याद आई-जहां भी ज्ञान की दो बातें मिले ध्यान से सुनो. वह घोड़े को एक वृक्ष से बांधकर कथा सुनने में रम  गया. चर्चा जब ज्ञान की हो तो समय कैसे बीत जाता है,पता ही नहीं चलता. हरपाल सिंह के साथ भी ऐसा ही हुआ.कैसे दिन डूबने को आई,पता ही न चला.

इधर राज परिवार के सदस्य भूख प्यास से तड़पने लगे. क्योंकि उन्होंने हरपाल सिंह के मरने के बाद ही अन्य जल ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की थी. राजा का बेटा भूख-प्यास सहन नहीं कर सका.वह जानना चाहता था कि हरपालसिंह का सिर अब तक क्यों नहीं पहुंचा?

वास्तविकता जानने के लिए राजकुमार एक साधारण पुरुष का वेश बनाकर उसी सैनिक के पास जा पहुंचा जिसे राजा ने हरपाल सिंह का सिर काटने की आज्ञा दी थी.

वहां जाकर उसने सैनिक से पूछा-" काम अब तक पूरा क्यों नहीं हुआ?

वह सैनिक वेश बदले हुए राजकुमार को नहीं पहचान पाया. उसने समझा कि यही वो व्यक्ति है जिसका सिर काटने के लिए मुझे महराज ने यहाँ  भेजा है.

उसने झट राजकुमार का सिर काट दिया.

यदि हरपालसिंह बूढ़े की पांच बातें नहीं मानता तो क्या होता?

आरुणि की गुरु-भक्ति

कुछ कथाएँ ऐसी होती हैं कि एक बार पढ़ ली तो पूरी जिन्दगी उसकी याद रह जाती है। 'आरूणि की गुरू-भक्ति' एक  ऐसी ही कहानी है जो भारत के गौरवशाली गुरुकुल प्रथा को प्रकाशित करती है और हमारी सनातन परम्पराओं की श्रेष्ठता को सिद्ध करती है। अगर आपने नहीं पढ़ी है तो आप भी पढ़िए और जिन्होंने पहले पढ़ी है वे अपने बचपन की ओर लौट चलें।

हजारों वर्ष पहले भारत में आज की तरह स्कूल नहीं थे। लड़के गुरुओं के पास आश्रमों में रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे। आश्रम वनों में होते थे और ऋषि-मुनि शिष्यों को विद्या देते थे। ऐसा ही एक आश्रम आयोद धौम्य ऋषि का था। इसके आसपास हरा-भरा वन था। इस वन में पशु निर्भय होकर विचरण करते थे।

यह आश्रम शिक्षा-दीक्षा के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। विद्यार्थी यहाँ रहकर विद्या प्राप्त करते थे। वे गुरूजी के घर का काम भी करते थे। लकड़ी लाना, फल-फूल लाना, पानी लाना, ये सब काम उन्हीं के जिम्मे थे।

आयोद धौम्य के पास धान का एक खेत था। इसी की उपज से आश्रम का काम चलता था। विद्यार्थी बारी-बारी से खेत का काम करते थे। वे धान बोने, पौधे रोपने, निराई करने आदि में लगन से जुट जाते थे। आश्रम में विद्या के साथ-साथ समाज के उपयोगी काम भी सिखाए जाते थे।

महर्षि अपने शिष्यों से पिता के समान स्नेह करते थे। शिष्य भी गुरूजी की सेवा हृदय से करते थे। इन्हीं शिष्यों में एक था आरुणि। एक दिन खेत पर काम करने की बारी उसकी थी। उस दिन वर्षा हो रही थी। गुरूजी ने आरूणि से कहा, "वत्स, जाओ, जाकर देखो कि कहीं पानी खेत की मेड़ न तोड़ दे।"

आरुणि खेत पर पहुँचा संध्या होने वाली थी। आरुणि ने देखा कि एक जगह पर खेत की मेंड़ में दरार पड़ गई है। उसमें से पानी रिस रहा है। उसने दरार में कुछ मिट्टी डाली। वह बह गई उसने कंकर-पत्थर डाले, वे भी न रुक सके। दरार चौड़ी होती गई। उसकी चिंता बढ़ गई। ऐसा न हो कि मेंड़ फूट जाए और खेत का सब पानी बह जाए। वह तुरंत खेत के अंदर की तरफ मेंड़ के सहारे लेट गया। खेत में से पानी निकलना बंद हो गया। आरुणि भीग तो चुका ही था। ठंडे पानी में पड़े-पड़े ठंड के मारे उसके दाँत किटकिटाने लगे।

रात हो गई। वर्षा थम गई। आश्रम में चिंता होने लगी कि आरुणि अभी तक क्यों नहीं आया। गुरूजी व्याकुल हो उठे। खेत आश्रम से कुछ दूर था। अँधेरा फैल चुका था। गुरूजी ने चार-पाँच शिष्य बुलाए और निकल पड़े आरुणि को ढूँढ़ने। शिष्यों के हाथ में मशालें थीं। इसमे रास्ता देखने में कठिनाई नहीं हुई। कीचड़ भरा मार्ग पार करते हुए आयोद धौम्य अपने खेत पर पहुँचे। खेत के चारों ओर घटाटोप अँधेरा था। खेत में पानी भरा हुआ था। कहीं आरुणि नहीं दिखा। उनको और भी चिंता हुई। वे जोर से चिल्लाए, "बेटा आरुणि, बेटा आरुणि।"

आरुणि ठंड के मारे काँप रहा था। उसे ऐसा लग रहा था कि अब वह बेहोश होने वाला है। उसी समय उसके कानों में कुछ आवाज पड़ी। पर वह कुछ समझ नहीं सका। इतने में गुरूजी ने फिर पुकारा, "बेटा आरुणि, आरुणि।" आरुणि ने गुरूजी की आवाज पहचान ली।

वह कठिनाई से बोल सका, "

गुरूजी मैं यहाँ हूँ। खेत में मेड़ के किनारे लेटा हूँ। यहाँ मेड़ में दरार पड़ गई है।"

गुरूजी लपककर वहाँ पहुँचे। मशालें हाथ में लिए शिष्य भी साथ थे। गुरूजी ने आरुणि को देखा, तो अचंभे में रह गए।

इतना-सा लड़का और इतना साहस। गुरुजी ने उसे उठाया, सीने से लगा लिया। उनकी आँखों में आँसू बहने लगे। वे उसकी पीठ पर हाथ फेरते जाते थे और उसे आशीर्वाद देते जाते थे।

ऐसा था गुरु-भक्त आरुणि। बड़ा होकर यही आरुणि गुरूजी के आशीर्वाद से वेदों और शास्त्रों का बहुत बड़ा विद्वान बना। उद्दालक ऋषि के नाम से वह प्रसिद्ध हुआ।

गुरू की भक्ति में बड़ी शक्ति है।

चुरकी- मुरकी

एक गाँव में चुरकी और मुरकी नाम की दो बहनें रहती थीं। उनका एक भाई थाजो दूसरे गाँव में रहता था। चुरकी बहुत नम्र और सेवाभाव रखनेवाली थीजबकि मुरकी बड़ी घमंडी थी ।

एक दिन चुरकी का मन अपने भाई से मिलने का हुआ । उसने अपने बच्चे मुरकी की देखभाल में रख दिए और भाई के गाँव की ओर निकल पड़ी ।

चलते-चलते उसे एक बेर का पेड़ मिला । बेर के पेड़ ने चुरकी को पुकारा पूछा; “कहाँ जा रही हो ?” चुरकी बोली, “भैया के पास।” पेड़ बोला, “मेरा एक काम कर दो। जहाँ तक मेरी छाया पड़ती हैउतनी जगह को झाड़-बुहारकर लीप- पोंत दो। जब तुम लौटोगी तो मैं मीठे-मीठे बेर वहाँ टपका दूँगा। तुम अपने बच्चों के लिए ले जाना।” चुरकी ने यह काम कर दिया और आगे बढ़ी।

चलते-चलते उसे एक गोठान मिला जिसमें सुरही गायें थी। एक गाय ने चुरकी से पूछा, “कहाँ जा रही हो ?” चुरकी बोली, "भैया के पास। ” गाय ने कहा, "हमारे इस गोठान को साफ कर दो। लीप पोत दो। वापिस आते समय एक दोहनी लेती आना। उसे हम दूध से भर देंगी। वह तुम अपने बच्चों के लिए ले जाना।” चुरकी ने चुटकी बजाते यह कर दिया और आगे बढ़ी ।

आगे चल कर उसे एक मिट्टी का टीला मिला। उसमें से आवाज आई, "क्यों बहन ! कहाँ जा रही हो ?” चुरकी को बड़ा अचरज हुआ कि यह किसकी आवाज है। वह बोली, "मैं भैया के पास जा रही हूँपर तुम कौन हो ? यहाँ तो कोई भी दिखाई नहीं देता।" टीला बोलामैं मिट्टी का टीला बोल रहा हूँ। तुम मेरे आसपास की जमीन साफ-सुथरी कर दो। वापसी में मैं तुम्हारी मजदूरी चुकता कर दूंगा।” चुरकी ने फौरन सब कर दिया और आगे बढ़ी।

अब वह अपने भैया के गाँव पहुँच गई। भैया उसे गाँव की मेंड पर खेत में ही मिल गया। वह उससे बड़े प्रेम से मिला। उसने सुख-दुख की बातें की। अपने साथ लाया हुआ कलेवा उसे खिलाया। पर जब भाभी से मिलने घर पहुँचीतो उसका व्यवहार उसके साथ रूखा रहा पर खैर! चुरकी ने दूसरे दिन भाभी- भैया से विदा ली। उसने भाभी से एक दोहनी माँग ली थी। भैया ने उससे चने का साग तोड़ने के लिए कहा। उसने तोड़ लिया। उसी को लेकर वह घर की ओर चल पड़ी।

वापस आते हुए सबसे पहले उसे मिट्टी का टीला मिलाजिस पर रूपयों का ढेर लगा था। यह उसकी मजदूरी थी। उसने रुपए बटोर कर अपनी टोकरी में रख लिए और चने के साग से ढक दिए। थोड़ी देर बाद गोठान आ गया। वहाँ गाय ने उसकी दोहनी दूध से भर दी। गायों को प्रणाम कर वह आगे चल पड़ी।

फिर उसे बेर का वृक्ष मिला। पेड़ के नीचे पकेमीठे बेरों का ढेर लगा था। कुछ बेर उसने अपने आँचल में बाँधे और पेड़ को शीश नवाकर आगे बढ़ी।

घर पहुँचने पर मुरकी ने उसके पास जब इतनी चीजें देखीं तो उसने समझा कि ये सब भैया ने उसे बिदाई के रूप में दी होंगी। उसे लालच हो आया। उसने सोचा कि उसे भी भैया के यहाँ जाना चाहिए। दूसरे दिन वह भी अपने भाई के घर के लिए निकल पड़ी।

चलते-चलते उसे भी पहले बेर का वृक्ष मिला। पेड़ ने उससे वही बात कहीजो चुरकी से कही थीपरंतु मुरकी घमंडिन थी। उसने साफ मना कर दिया और आगे बढ़ गई।

आगे बढ़ने पर उसे गोठान मिला। वहाँ की गायों ने भी उससे सफाई कर देने के लिए कहा। वह उनपर चिढ़ गई। मना करके वह आगे बढ़ गई। आगे उसे मिट्टी का टीला मिला। टीले ने भी उससे वही बात कहीजो चुरकी से कही थी। मुरकी चिढ़ गई। उसने कहा, "क्या मैं गरीब हूँ. जो मजदूरी लूँगी ? मुझे मेरे भाई से बहुत रुपए मिल जाएँगे।" इस प्रकार सबका अपमान करके वह आगे बढ़ी।

गाँव की मेंड पर खेत में ही भाई से उसकी भेंट हो गई। भाई प्रेम से मिला। फिर घर पहुँचकर भाभी से मिली। भाभी का व्यवहार भी ठीक ही रहा। दूसरे दिन उसने भैया-भाभी से बिदा माँगी। भाभी ने बिदाई कर दी पर भेंट में कुछ नहीं दिया। खेत में भाई से मिली। भाई ने चने का साग तोड़ने को कहा । थोड़ा-सा साग लेकर वह चल पड़ी। वह मन ही मन बहुत दुखी हुई कि भैया-भाभी ने चुरकी को तो कितनी सारी विदाई दी थीमुझे कुछ नहीं दिया।

लौटते समय रास्ते में पुनः मिट्टी का टीला पड़ा। जैसे ही वह टीले के पास पहुंची तो वहाँ तीन-चार काले सर्प निकले और मुरकी की ओर बढ़े। घबराकर वह भागी। भागते-भागते वह गोठान तक पहुँची। वहाँ आराम करने के लिए थोड़ी देर रुकी तो वहाँ की सुरही गाएँ उसे मारने के लिए दौड़ीं। बेचारी मुरकी वहाँ से भी जान बचाकर भागी। किसी तरह गिरते-पड़ते वह बेर के पेड़ के पास पहुँची तो वहाँ बेर के काँटों का जाल बिछा हुआ था। काँटों से मुरकी के हाथ पैर छिद गए। उसमें उलझकर उसके वस्त्र फट गए।

वह इस तरह घायल होकर थकी माँदी किसी तरह चुरकी के घर तक पहुँची। चुरकी को उसकी हालत देखकर बहुत कष्ट हुआ। उसने सहानुभूति के साथ उसकी दयनीय दशा का कारण पूछा। मुरकी ने भैया-भाभी के पक्षपात और उनकी कंजूसी का दुखड़ा रोया। तब चुरकी ने उसे बताया कि भैया ने तो उसे कुछ नहीं दिया था। उसने यह भी पूछा, “रास्ते में तुमसे किसी ने कुछ करने को कहा था क्या ?” इसपर मुरकी ने उसे सारी बातें बताई। चुरकी सब कुछ समझ गई। वह बोली, “बहन ! तुमको बहुत घमंड था। इसलिए यह हालत हुई। संसार में घमंड किसी का भी नहीं टिकता। घमंड ही आदमी को नीचे गिराता है। "