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एकलव्य की गुरु-भक्ति

गुरु भक्त एकलव्य की कथा महाभारत में वर्णित है । कथा के अनुसार एकलव्य एक भील बालक था। वह बचपन से बहुत होनहार था और उसे तीर चलाने में बड़ा आनंद आता था । वह हमेशा धनुष-बाण अपने साथ रखता था । जब वह बड़ा हुआ तो उसे धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त करने की बहुत इच्छा हुई और वह एक योग्य गुरु की खोज में घर से निकल पड़ा ।

महाभारत काल में गुरु द्रोणाचार्य धनुर्विद्या के महानतम आचार्य माने जाते थे । पांडवों और कौरव भी उन्हीं के आश्रम में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। गुरु द्रोणाचार्य केवल राजपुत्रों को ही  सिखाते थे, सामान्य जन के लिए उनसे शिक्षा प्राप्त करना बहुत दुष्कर कार्य था ।

एक दिन एकलव्य द्रोणाचार्य के आश्रम में पहुंचा । उसने गुरु को प्रणाम किया और बोला, "गुरुवर, मैं एक भील-पुत्र हूँ। मैं बहुत ही आशा के साथ आपके पास धनुर्विद्या सीखने आया हूँ। धनुर्विद्या ही मेरा जीवन है और मैं इस विद्या के महानतम गुरु से ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ । " द्रोणाचार्य उसके साहस और उत्साह को देखकर बड़े प्रभावित हुए । उन्होंने स्नेह से कहा, "वत्स ! मैं विवश हूँ, मैं तुम्हें शिक्षा नहीं दे सकता। मैं केवल राजपुत्रों को धनुर्विद्या सिखाता हूँ।"

गुरु द्रोणाचार्य की बात सुनकर एकलव्य बहुत दुखी हुआ। पर उसने हार न मानी । मन ही मन उसने धनुर्विद्या सीखने का पक्का निश्चय कर लिया। उसने गुरु द्रोणाचार्य को प्रणाम किया और वहाँ से चला गया ।

एकलव्य एक घने जंगल में पहुंचा। वहाँ उसने गुरु द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उसे ही साक्षात् गुरु मानकर वह धनुर्विद्या की साधना करने लगा । अपनी लगन के कारण वह इतना कुशल हो गया कि केवल शब्द सुनकर ही निशाना लगाने लगा ।

एक दिन की बात है। द्रोणाचार्य अपने प्रिय शिष्य अर्जुन तथा अन्य राजकुमारों के साथ घूमते-घूमते उसी जंगल में आए । उनके साथ एक कुत्ता भी था। कुछ आगे बढ़कर अचानक ही वह जोर-जोर से भौंकने लगा, पर कुछ ही देर बाद उसका भोंकना बंद हो गया। इससे गुरु द्रोण और अर्जुन को कुछ शंका हुई । वे शीघ्रता से आगे बढ़े । उन्होंने देखा कि कुत्ते का मुंह तीरों से भरा हुआ है।

द्रोणाचार्य आश्चर्यचकित होकर सोचने लगे कि अर्जुन के सिवाय केवल शब्द सुनकर बाण से निशाना लगाने वाला दूसरा कौन है दोनों आगे बढ़े । जब उन्होंने जाकर देखा तो उनके सामने हाथ में धनुष लिए एकलव्य खड़ा था। अपने गुरु को देखकर एकलव्य ने उन्हें प्रणाम किया। द्रोणाचार्य ने उससे पूछा कि उसने यह विद्या किससे सीखी, तो एकलव्य ने बताया कि वह किस प्रकार उनकी मूर्ति के सामने प्रतिदिन अभ्यास करता है। यह सुनकर द्रोणाचार्य आश्चर्यचकित हुए।

सहसा गुरु द्रोणाचार्य को स्मरण हुआ कि उन्होंने अर्जुन को वचन दिया था कि उससे बेहतर धनुर्धारी संसार में कोई नहीं होगा, लेकिन एकलव्य की विद्या उनके इस वचन में बाधा बन रही थी। ऐसे में उन्हें एक युक्ति सूझी। उन्होंने एकलव्य से कहा, “वत्स, तुमने मुझसे शिक्षा तो ले ली, लेकिन मुझे गुरु दक्षिणा तो अभी तक नहीं दी है।

आदेश करें गुरुवर। आपको दक्षिणा में क्या चाहिए।एकलव्य ने कहा। एकलव्य की बात का जवाब देते हुए द्रोणाचार्य ने कहा कि गुरु दक्षिणा में मुझे तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा चाहिए।“

दाहिने हाथ के अंगूठे के बिना तीर चलाना असंभव था। ऐसा करने पर एकलव्य को अपनी धनुर्विद्या के कौशल से वंचित होना पड़ता । परन्तु महान गुरुभक्त एकलव्य ने तुरंत अपनी कृपाण निकाली और अपना अंगूठा काट कर गुरु द्रोणाचार्य के चरणों में रख दिया। एकलव्य का यह त्याग और गुरु के प्रति श्रद्धा देख द्रोणाचार्य बहुत प्रभावित हुए और बोले- "वत्स ! तू मेरा सच्चा शिष्य है, तेरी साधना महान है। तुम्हारा नाम युगों-युगांतर तक अमर रहेगा।”ऐसा कहते हुए उन्होंने एकलव्य को ह्रदय से लगा लिया ।

सहस्त्रों वर्ष बीत गए लेकिन आज भी एकलव्य की गुरुभक्ति और लगन के कारण उसका नाम एक महान शिष्य के रूप में अमर है।